Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 02
Author(s): M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 214
________________ एण्णे-माके अरकोष्टारमें अपने दास बनवाई गई त्रिकूट बसदिकी बसदियों के लिये उसने भू-दान किया ।] [ EC, IV, Chamarajnagar tl., n° 83.] २६५ . मुगुलूर-कड़ [वर्ष हेमलम्बी [१११७ ई० १ (लू० राइस)] (इस लेखकी पहली १४ पंक्तियाँ इसी नामके तालुकेके ३८० में लेखकी पंक्तियोंसे मिलनी हैं) ..........."पुष्पसेन-सिद्धान्त-देवरु अवर शिष्यरु वासुपूज्य-देवरु हेमलम्बि-संवत्सरद वैशाख-बहुल त्रयोदशी-बुधवारदन्दु सल्लेखन-समाधि-मरणदिं मुडिपि स्वर्गक्के सन्दर मंगलमहा श्री श्री श्री [दमिल संघान्तर्गत नन्दिसंघके अरुङ्गळान्वयकी प्रशंसा । पुष्पसेनसिद्धान्त-देवके शिष्य वासुपूज्य-देवने (उक्त मितिको), सल्लेखना धारण करके, देहत्याग किया और स्वर्गको पहुँचे।] [EC, V, Hasan tl., n° 131.] २६६ हळेबीड-संस्कृत कमड़-भम [काल लुस, लगभग १९१७ ई.] [इसका लेख नहीं है, मात्र Mysore ins. Translated' में नं० ११७ के शिलाशासनमें लुई राइसके द्वारा अनुवाद दिया हुमा है] [लेखमें सर्वप्रथम जिनेश्वर पार्श्वनाथको लक्ष्य करके मङ्गलाचरण है। पश्चात् राजा विष्णुवर्द्धन और उसके मन्त्री गङ्गराजकी प्रशंसा है।] [Mysore ins, translated, no 117, tr.'1 १ अनुवाद लम्बा होनेसे मूल लेख भी लम्बा मालूम पड़ता है।

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