Book Title: Jain Satyaprakash 1937 06 SrNo 23
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ૫૫૫ દિગબર શાસ્ત્ર કૈસે બને ? जातिलिङ्गविकल्पेन, येषां च समयाग्रहः तेऽपि न आप्नुवन्त्येव, परमं पदमात्मनः ॥८९।। मैं ब्राह्मण हूं, मैं नग्न साधु हुं ऐसा आग्रह मोक्ष का बाधक है। (समाधिशतक) किसी विद्वान ने एक जाली ग्रन्थ बनाकर इन आचार्य के नाम पर भी चडा दिया है। उस ग्रन्थका नाम है “ पूज्यपाद उपासकाचार' । सम्पूर्ण ग्रन्थ कृत्रिम होने पर भी उसकी भिन्न भिन्न प्रतियों को श्लोक संख्या में भी बड़ा अंतर है-बडी अव्यवस्था है । इस के लिये पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने चर्चा की है, और अंत में लिखा है कि "इससे, पर्याय नाम की वजह से यदि उनमें से ही किसोका ग्रहण किया जाय तो कीसका ग्रहण किया जाय, यह कुछ समज में नहीं आता" । (उनके) “साहित्य के साथ मिलान करने पर इतना जरूर कह सकते हैं कि यह ग्रन्थ उक्त ग्रन्थों के कर्ता श्री पूज्यपाद आचार्य का तो बनाया हुआ नहीं है"। "इस प्रकार के विभिन्न कथनों से भी यह ग्रन्थः सर्वार्थसिद्धि के कर्ता श्री पूज्यपाद स्वामी का बनाया हुआ मालुम नहि होता, तब यह ग्रन्थ दूसरे कौनसे पूज्यपाद आचार्य का बनाया हुआ है, और कब बना है, यह बात अवश्य जानने के योग्य है। और इसके लिये विद्वानों को कुछ विशेष अनुसन्धान करना होगा। मेरे ख्याल में यह ग्रन्थ पं० आशाधर के बाद का-१३ वीं शताब्दि से पीछे का-बना हुआ मालुम होता है। परन्तु अभी मैं इस बात को पूर्ण निश्चय के साथ कहने के लिए तय्यार नही हूं"। ----ग्रन्थपरीक्षा, भा० ३ अर्वाचीन ग्रन्थकारों ने पूज्यपाद के नाम से भी ठीक ठीक लाभ उठाया। सुअखंधो, श्रुतावतार वगैरह में सिद्धांत और उनके निर्माता का इतिहास है। उस इतिहास में आपका नाम और आपके ग्रन्थ का कोई इशारा नहीं है। यह एक विचारणीय समस्या है । दिगम्बर समाज में आ० पूज्यपाद समर्थ ग्रन्थकार हुए हैं। (क्रमशः) સુચના - પરમ પૂજય આચાર્ય મહારાજ શ્રી વિજયલબ્ધસૂરિજી. ને “પ્રભુ મહાવીરનું તત્ત્વજ્ઞાન” શીર્ષક ચાલુ લેખ તથા પરમ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી વિજયલાવણ્યभू२ि०ने। “समीक्षाभ्रमाविष्करण" शाप यालु લેખ આ અંકમાં આપી શકાયો નથી. For Private And Personal Use Only

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