Book Title: Jain Satyaprakash 1937 06 SrNo 23 Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad View full book textPage 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૫૫૪ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ मोक्ष-मार्ग में बहिरात्माकी चर्चा करनेवाले इस कथन से भी बोधपाठ ले सकते हैं । ___ यो न वेत्ति परं देहात् ।। ३३॥ मोक्ष-मार्ग में पुरुष शरीर, स्त्री शरीर की चर्चा करनेवाले इस श्लोक से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। ज्ञानी पुरुष के वचन निष्फल या निरपेक्ष नहीं होते हैं। परत्राहं मतिः स्वस्माच्च्युतो बध्नात्यसंशयम् ॥४३॥ मेरा शरीर, मेरा वस्त्र यह विचारणा ही आत्मा को बंधन कारक है, उनके होने पर भी उन्हें अपना मानना नहीं चाहिये । दृष्यमानमिदं मूढः स्त्रिलिङ्गमवबुध्यते ॥४४॥ बेचारा कमअकल आदमी मैं पुरुष हूं, मैं स्त्री हूं, मैं नपुंसक हूं ऐसा मानता है, जब की मोक्षगामी आत्मा इन लिंगों से रहित है। उसके लिङ्ग ज्ञानादि हैं। पूर्वविभ्रमसंस्काराद्धान्तिं भूयोऽपि गच्छति ॥४५॥ विभाव का विचार करनेवाला जीब ज्ञानी होने पर भी मैं पुरुष हुं, मैं ब्राह्मण हूं, यह शूद्र है, इस विचारणा से पुनः भ्रम में फस जाता है। शरीरे वाचि चात्मानं० ॥५४॥ ____ शरीर को आत्मा मानना यह अज्ञानता है । जीव शरीर से भिन्न है फिर भी पुरुष देह से मोक्ष होता है, स्त्रीत्वांगको दूर करने से स्त्री देह से भी मोक्ष है यह बात कहना मात्र है। जीर्णे वस्त्रे यथात्मानं, न जीर्ण मन्यते तथा । जीर्णे स्वदेहेऽप्यात्मानं, न जीर्ण मन्यते बुधः ॥६४॥ इस आशय के और भी उत्तरार्ध श्लोक बन सकते हैं कि स्त्रियो देहे तथाऽऽत्मानं, न स्त्रियं मन्यते बुधः।। शूद्रदेहे तथाऽऽत्मानं, न शूद्रं मन्यते बुधः ॥ नयत्यात्मानमात्मैव, जन्म निर्वाणमेव च ॥७५।। आत्मा ही आत्मा को संसार में फसाता है और मोक्ष में ले जाता है। लिङ्ग देहाश्रितं दृष्ट, देह एवात्मनो भवः। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात् , ते ये लिङ्गकृताग्रहाः ॥८७।। जातिदेहाश्रिता दृष्टा ॥८८॥ इस श्लोक से स्पष्ट है कि-ब्राह्मण ही मोक्ष में जा सकता है, पुरुष ही मोक्ष में जा सकता है, नग्न ही मोक्ष में जा सकता है इत्यादि लिङ्ग के आग्रह से संसार बढता है। For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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