Book Title: Jain Ratnakar
Author(s): Keshrichand J Sethia
Publisher: Keshrichand J Sethia

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Page 21
________________ जैन रत्नाकर खेलसंचालेहिं, सुहुमेहिं दिद्विसंचालेहि, एवमाइएहिं आगा रेहिं अभग्गो अविराहिओ हुन्ज मे काउस्सग्गो, जाव अरिहंताणं भगवंताणं, नमुक्कारेणं नपारेमि, ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि । उसको श्रेष्ठ उत्कृष्ट बनाने के निमित्त । प्रायश्चित आलोचना करने के लिये । विशेष रूप से शुद्धि करने के लिये । तीन शल्य का त्याग करने के लिये । पाप-कर्मों का, नाश करनेके लिये, करता हूँ, कायोत्सर्ग (ध्यान)। इन आगारों के बिना उश्वास, निःश्वास, खांसी, छींक, जंभाई ( वगासी , डकार, अधोवायु, चक्कर, पित्तविकार जनित मूर्छा, सूक्ष्म (थोड़ा), अंग संचार सूक्ष्मश्लेष्म (कफ) संचार, सूधम दिष्टि संचार, इत्यादि आगारों से भंग नहीं विराधना नहीं ( अखंडित) हो मेरा ध्यान (कायोत्सर्ग) जब तक अरिहन्त भगवन्त को नमस्कार करके न पाळं ध्यान (समाप्त) तव तक काया को स्थिर रखकर, मौन रहकर, ध्यान धरकर, आत्मा को पाप कर्म से त्यागता हुआ छोड़ता हूं। लोगस्स लोगस्स उज्जोयगरे, धम्मतित्थयरेजिणे, अरिहंतेकित्तइस्सं चउन्नीसंपि केवली १ उसममजियं च वंदे, संभवमभिनंदणं च सुमइंच, पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे २ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीयलसिज्जंसवासुपुजं च,

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