Book Title: Jain Ratnakar
Author(s): Keshrichand J Sethia
Publisher: Keshrichand J Sethia

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Page 119
________________ जैन रत्नाकर ढाल कृपण दोन अनाथ ए, म्लेच्छादिक त्यांरी जात ए। रोग शोक ने आरत ध्यान ए, त्यांने दे अनुकम्पा दान ए ॥१॥ त्यांने देव मूलादिक जमीकन्द ए, तिण में अनन्त जीवां रा फन्द ए । तिण दियां केवै मिश्र धर्म ए, तिणरै उदै आया मोह कर्म ए॥२॥ लूणादिक पृथवी काय ए, आपे अग्नि ढोले पाणी वाय ए। देव शस्त्र -विविध प्रकार ए, इण दान सूरुले संसार ए॥३॥ बन्धीवानादिक ने काज ए, त्यांने कष्ट पड्या देव साज ए। थोरी बावरी भील कसाई ने ए, सचित्तादिक द्रव्य खवाई ने ए॥४॥ छोड़वा देवै ग्रंथ ताम ए, संग्रह दान छै तिण रो नाम ए। ए तो. संसार रो उपगार ए, अरिहन्त नी आज्ञा बार ए ॥५॥ ग्रह करड़ा लागा जाण ए, सुणी लागी पनोती आण ए। फिकर घणी मरवा तणी ए, वले कुटुम्ब तणी जतना भणी ए॥ ६ ॥ भयरो घाल्यो देवैः आम ए, भय दान छै तिण रो नाम ए । ते लेवै छै कुपात्र आय ए, तिण में मिश्र किहाँ थी थाय ए॥ ७ ॥ खर्च करें मुवारै केड़ ए, जिमावै न्यात ने तेड़ ए। तीन बारा दिन अनुमान ए, ए चौथो कालुणी दान ए॥ ८॥ बले बरस छमासी श्राद्ध ए, जिम तिम करै कुल मर्याद ए । मुवा पहिली खर्च करै कोय ए, घणा ने राम.. करै सोय ए॥ ॥ आरम्भ कियाँ नहीं धर्म ए, जिमायाँ पिणबन्धसो कर्म ए। वुद्धिवन्तां करजो विचार ए, या में संवर निर्जरा नहीं लिगीर ए ॥ १०॥ घणा रो लज्जावश थाय ए, सांकडै पड्या,

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