Book Title: Jain Ratnakar
Author(s): Keshrichand J Sethia
Publisher: Keshrichand J Sethia

View full book text
Previous | Next

Page 127
________________ जैन रत्नाकर ११७ आत्म-चिन्तन द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। दूसरे व्यक्ति को अपने दोषों के बारे में अवसर देने से पहले ही उन्हें पहचान कर छोड़ देना मानव से महामानव बनना है। 'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं'-यह सिद्धान्त का पद हमें यही शिक्षा देता है कि 'अपनी आत्मा को अपनी आत्मा के द्वारा देखो' और फिर" जत्थेव पसिकई दुप्प उतकाएणवाया अदुभाण सेण तत्थेवधीरो पड़िसाहरिजा आईनाओखिप्प मिवक्खलिणम् ?" अर्थात् जहाँ कहीं भी धीर पुरुष अपनी आत्माको मन वचन और काया के द्वारा दुष्प्रवृत्ति करते देखे उसी समय जैसे उत्पथगामी घोड़े को लगाम डाल कर रोक लिया जाता है वैसे रोके। ___ इसी आत्म-चिन्तन को जन साधारण में प्रचलित करने के लिये जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के नवमाचार्य श्री तुलसी गणी जनसाधारण द्वारा होनेवाली गलतियों का दिग्दर्शन कराते हुए उपदेश देते हैं कि प्रत्येक मनुष्य इनका चिन्तन करे और अपने में पाई जानेवाली गलती को छोड़े। यही इसकी विशेषता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137