Book Title: Jain Ratnakar
Author(s): Keshrichand J Sethia
Publisher: Keshrichand J Sethia

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Page 126
________________ जैन रत्नाकर ११६ श्री जिनवर धर्म विराधजी । संसार समुद्र अगाथजी, जिन धर्म री रहिस नहीं लाघजी । भव भव में पामें असमाधजी, ए पण कुगुरां तणो प्रसादजी ॥ श्री वीर ॥ १४ ॥ अशुद्ध जागी देवै साधु ने, ते साध ने लूटी लिया ताय । पाप उदय हुवै इण भवे, दुःख दारिद्र धसे घर मांयजी । ऋद्ध सम्पति जावै विलाय जी, दुःख मांहि दिन जायजी । कदा पुन्य भारी हुवै तायजी, तो परभव में शंका नहीं कायजी ॥ श्री वीर ॥ १५ ॥ इम सांभल नर नारियां जी, कीज्यो मन में विचार । शुद्ध साधां ने जाणनेजी, अशुद्ध मत दीज्यो किणवार जो । अशुद्ध में धर्म नहीं लिगार जी, शुद्ध दान दे लाहो ल्यो सारजी । ज्यू उतर जावो भव पारजी, ए मनुष्य जन्म नो सारजी ॥ श्री वीर कहै सुण गोयमा ॥ १६ ॥ आत्म-चिन्तन दृष्टि आत्म-चिन्तन प्रत्येक मनुष्य का प्रथम कर्त्तव्य होना चाहिये क्योंकि जिन बुराइयों को मनुष्य छोड़ना चाहता है, पहले उनसे घृणा होनी चाहिये ; आत्म-चिन्तन उन बुराइयों से घृणा पैदा करता है, अतः बादमें उन्हें छोड़ देना सहज होता है । अपने अवगुण अपने आप देख कर छोड़ने से बढ़कर मनुष्य में महान बनने की कोई शक्ति नहीं हो सकती और यह शक्ति

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