Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Vishnuprasad Vaishnav
Publisher: Shanti Prakashan

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Page 159
________________ पुच्छाच्छोट कृतो व्याघ्राः फुत्कुर्वाणाः फणाभृतः ॥ पिशाचप्रेतवेताल लभूताश्चाकृष्टकत्रिका || 250 कृति की भाषा में समयानुसार नादसौंदर्यानुभूति के लिए कवि ने अनुरणात्मक शब्दों का प्रयोग किया है जिससे भाषा को विशिष्टता प्राप्त हुई है। रावण की सेना का वर्णन करते हुए हेमचंद्र के इस गुण का ज्ञान सहज होता हैशार्दूलकेतवः केचित्केचिच्छरभकेतवः ॥ चमूरुकेतत्वः कैचित्केचित्करतिकेतवः। मयुरकेतवः केचित्केचित्पन्नगकेतवः। मार्जाचरकेतवः केचित्केचित्कुक्कुटकेतवः ॥ कोदण्डपाणयः केचित्केचिन्निस्त्रंपपाणयः ॥ भुशुण्डीपाणयः केचित्केचिमुद्गरपाणयः ॥ | त्रिशूलपाणयः केचित्केचित्परिघपाणयः। कुठारपाणयः केचित्केचिच्च पाशपाणयः ॥ 251 नादसौंदर्य हेमचंद्र की भाषा का मुख्य गुण होने से ऐसे उदारहण कृति में भरे पड़े हैं। अनेक श्लोक ऐसे हैं जिन्हें पढ़ते हुए पाठकों का हृदय तरंगित हो जाता है। यथा सदपि जय जयेति व्याहरद्भिधुंसद्भिर्व्यरचि कुसुमवृष्टिलक्ष्मणस्योपरिष्टात् । समजनि च कपीनां ताण्डवं चण्डहर्षोत्थित किलकिलनादापूर्णरोदोनिकुंजम्। 52 जैन रामायणकार ने यत्र-तत्र भावानुकूल सूक्तियों का भी प्रयोग किया है। अधिकतर सूक्तियां संस्कृत की पूर्व परंपरा से ग्रहण की गई हैं। 253 सूक्तियों की भाषा प्रसादगुणयुक्त एवं सरल है। यथाक जिते नाथे जिता एवं पदातयः । (त्रिशपुच- पर्व ७-२/६२०) ख पुत्रार्थे क्रियते न किम्। (वही-२/४३०) ग प्राप्तोदयं हि तरणिं तिराधातुं क इश्वरः (वही-४/३६) घ शोको हर्षश्च संसारे नरमायति याति च। (वही-४/२५३) ड़ सतां संगो हि पुण्यतः । (वही-६/९७) __ हेमचंद्र की भाषा का एक मुख्य गुण और है- उसकी अलंकारिकता। भाषा की अलंकारिकता हेतु हम "अलंकार-विधान' शीर्षकान्तर्गत पृथक विवेचना कर चुके हैं। सारांशतः त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व ७ जैन रामायण की भाषा प्रांजल, परिमार्जित, अलंकृत, नादसौंदर्ययुक्त, अनुरणात्मक, समस्त एवं व्यस्तता मिश्रित एवं सरल है। हाँ, भाषा में कही-कहीं कृत्रिमता के पुट को हम नकार नहीं सकते। 158

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