Book Title: Jain Ramayan
Author(s): Vishnuprasad Vaishnav
Publisher: Shanti Prakashan

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Page 172
________________ ५४. शेर का युद्ध में एक भी सहायक नहीं होता। 423 ५५. अन्य पुरुषों की सहायता से प्राप्त विजय बलवान पुरुषों के लिए लज्जारूप है। 24 ५६. प्रतिकूल हुए देव पर किसी का वश नहीं चलता। 425 ५७. सज्जनों का समागम पुण्य से ही होता है। 426 ५८. छींक के सर्वथा नष्ट होने पर सूर्य ही शरण रूप हैं। 427 ५९. महान पुरुषों को स्वयं के कार्य से भी दूसरों के काम की अधिक चिंता रहती है। ६०. भोजन के लिए जिस तरह ब्राह्मण उसी तरह युद्धार्थ वीर आलस नहीं करते। 23 ६१. हिरण को मारने के लिए शेर को दूसरी झपट की आवश्यकता नहीं। 45 ६२. अति बलवान कामावस्था को धिक्कार है। 431 ६३. एक बार जो हो गया (अच्छा-बुरा) वह पुनः वैसा नहीं हो सकता। ६४. न्यायी महात्माओं के पक्ष का आश्रय कौन नहीं लेता। 433 ६५. खल कपट-कुशल होते हैं । 434 ६६. बलवानों को सब अस्त्र रुप है। 435 ६७. घूर्त पुरुष दूसरों के हाथ से अंगारे निकलवाते हैं। 436 ६८. कमलनाल से बंधा हाथी कब तक रहेगा। 437 ६९. महापुरुष पराजित शत्रु पर भी कृपालु ही होते हैं। 438 ७०. राजाओं की आप्त मंत्रियों के साथ विचारणा शुभ परिणामी होती है। 42 ७१. डाकिनी की तरह शत्रु पर भी अकस्मात् विश्वास नहीं होता। 441 ७२. महात्माओं का आदर करना निष्फल नहीं जाता। 442 ७३. पूजनीयों से भय में शर्म कैसी। 443 ७४. राजकार्य में राजाओं को उपाय से ही जगाया जाता है। 444 ७५. वीर पुरुष प्रजा के लिए समान दृष्टि वाले होते हैं। 445 ७६. मुनि लोग एक जगह स्थिर नहीं रहते। 446 ७७. प्रायः अपवादों का निर्माण लोगों के द्वारा ही होता है। 447 ७८. कर्म के अधीन सुख-दुःख अवश्य भुगतने पड़ते हैं। 448 ७९. आपित्ति में धर्म ही शरण रूप है। 449 . ८०. रोगी व्यक्ति दोष को नहीं देखता। 449. ८१. एक धर्म को स्वीकारने वाले सभी परस्पर भाई होते हैं। 450 ८२. आपत्ति में मंत्री की तरह मित्र भी स्मरण के योग्य होते हैं। 455 ८३. भाग्य की तरह दिव्य की गति भी प्रायः विषम होती हैं। 453 ८४. कर्मों की गति विषम हैं। 454 ८५. कर्म फल दुर्गम्य हैं ८६. मानवों के सौ छिद्रों में सैकड़ों भूत प्रवेश करते हैं। 45 ८७. देहधारियों की गति कर्म के आधीन है। 457 ८८. विवेक के उत्पन्न होने पर रौद्रता नष्ट हो जाती है। 458 171

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