Book Title: Jain Purano ka Sanskrutik Aavdan
Author(s): Pravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 6
________________ सम्पादकीय जैन पुराण साहित्य जैन संस्कृति का दर्पण है । जैन आचार्य जिनसेन ने "पुरातनं पुराणं स्यात्" कहकर प्राचीन आख्यानों को पुराण माना है।' “इति इह आसीत्" यहाँ ऐसा हुआ पुराण में ऐसी कथाओं का निरूपण होने से उसे 'इतिहास, इतिवृत्त' और 'ऐतिह्य' भी कहा है। एक परिभाषा में क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाएँ ऐसे पंचलक्षण-युक्त साहित्य को 'पुराण' बताया गया है। इस परिभाषा में ऊर्ध्व, मध्य और पाताल-रूप तीन लोकों को क्षेत्र; भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों समयों को काल; मोक्ष प्राप्ति के उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को तीर्थ तथा तीर्थसेवियों को सत्पुरुष और उनका न्यायोपेत् आचरण उनको चेष्टाएं मानी गयो है। पुराण की परिभाषा और वर्ण्य-विषय पर एक साथ विचार करते हुए निष्कर्षरूप में पुराण में-लोक, देश, नगर, राज्य, तीर्थ, दान, तप, गति और फल इन आठ विषयों को पुराण का वर्ण्य-विषय बताया गया है । इनमें लोक का नाम, व्युत्पत्ति, दिशा तथा उसके अन्तरालों को, लम्बाई-चौड़ाई आदि को वर्णन लोकाख्यान, लोक के किसी एक भाग में स्थित देश, पहाड़, द्वीप तथा समुद्रादि का सविस्तार वर्णन देशाख्यान, राजधानी का वर्णन पुराख्यान, नगरपति का वैभव, विलास और राज्यविस्तार वर्णन राजाख्यान, जो संसार से पार करे वह तीर्थ ऐसे तीर्थकर के चरित का वर्णन तीर्थाख्यान, अनुपम फल प्राप्ति में सहायक तप-दान का कथन तपोदान कथा, चारों गतियों को विभिन्न अवस्थाओं का निरूपण गत्याख्यान और पुण्य-पाप-फल का मोक्ष-प्राप्ति-पर्यन्त वर्णन करना फलाख्यान कहा है। पुराण को सत्कथा संज्ञा भी दी गयी है तथा ऐसी कथा के सात अंग बताये हैं । वे हैं-द्रव्य, क्षेत्र, तोर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत । इनमें द्रव्य छ: है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल । त्रिलोक-क्षेत्र है । तीर्थकर का चरित तीर्थ, भूत-भविष्यत् और वर्तमान ये तीन काल, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये दो भाव, तत्त्वज्ञान का होना फल और कथावस्तु प्रकृत अंग कहा है। पुराण की पंचलक्षण परिभाषा में प्रयुक्त 'सत्पुरुष' शब्द यहाँ ध्यातव्य है । सत्पुरुषों को रत्नत्रय तीर्थ का सेवी बताये जाने से ज्ञात होता है कि पुराण में सत्पुरुष का अभिप्राय उन पुरुषों से है जिन परुषों के आश्रय से पुराणों की रचना हुई है। वे पुरुष तिरेसठ हैं। उनकी गणना निम्न प्रकार है-चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण और नौ प्रतिनारायण । इन तिरेसठ सत्पुरुषों को 'शलाका पुरुष' कहा गया है । पुराणों में इन्हीं शलाका पुरुषों का जीवनचरित चचित है। महापुराण में इन सभी का उल्लेख है। पदमपुराण में बलभद्र पद्म (राम) और नारायण लक्ष्मण तथा प्रतिनारायण रावण का जीवन चरित दर्शाया गया है। हरिवंशपुराण में नारायण कृष्ण तथा प्रतिनारायण जरासन्ध का जोवनवृत्त है । इसी प्रकार पाण्डवपुराण में प्राचीन दो प्रमुख राजवंशों के मध्य नारायण कृष्ण की भूमिका और वीरवर्द्धमानचरित में तीर्थंकर महावीर की जीवनी का उल्लेख है। इन महापुरुषों के जीवनवृत्त में उनके पूर्वभवों का उल्लेख भी है, जिसमें उनको धार्मिक अधार्मिक, नैतिक अनैतिक भावनाओं का प्रदर्शन और उन शुभाशुभ भावनाओं से उत्पन्न पुण्य-पाप-फल भी दर्शाया गया है। यह भी स्पष्ट बता दिया गया है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में मोक्ष साध्य और धर्म, अर्थ तथा काम उसके साधन है। पुरुष का परम पुरुषार्थ है साधनों के माध्यम से साध्य को ओर बढ़ना/अपने लक्ष्य को प्राप्त करना। इसके लिए आवश्यक है शारीरिक या मानसिक शक्तियों का प्रशिक्षण, दृढ़ीकरण या विकास अथवा उससे उत्पन्न अवस्था। इसी का नाम है 'संस्कृति' ।' यह दो प्रकार की होती है-भौतिक संस्कृति और आध्यात्मिक संस्कृति । जैन पुराणों में दोनों संस्कृतियां समाहित है। इनमें आध्यात्मिक संस्कृति का उद्देश्य आत्मा को परमात्मा बनाना है। इसके लिए पुराणों में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया गया है। मुनियों के उपदेश दर्शाए गये हैं। उपदेशों में धर्म-दर्शन और तत्त्वज्ञान की महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया गया है। शलाका पुरुषों और शलाकेतर पुण्य-पुरुषों के जीवन में घटित-घटनाओं को देकर बताया गया है कि जीव कर्माबद्ध होकर दुःख भोगता है। वह चाहे तो रत्नत्रयपूर्वक तप करके कर्मों को भस्म कर सकता है और पा सकता है-शिव-सुख । आराधना से अहंन्त और सिद्ध होकर आराध्य बन सकता है । पतित से पावन बनने के लिए निर्ग्रन्थ होकर सहर्ष परोषह सहते हुए धर्म धारण करना होता है। महाव्रत, समिति, गुप्ति धारणकर आत्मच्यान करना होता है। इसके पश्चात् ही परम शुक्लध्यान से केवलज्ञान प्रकट होता है और मिकता है शाश्वत सुख । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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