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लेखाङ्क ३१९-सं० १८६९ पौषमुदि १२ गुरौ श्रीऋषमदेवजी पादुकाभ्यो नमः, म. श्रीविजयलक्ष्मीसरिमिा प्रतिष्ठितं लोटीपुरपट्टणे।
भाषा का यह रूढरूप आज तक ज्यों का त्यों चला आ रहा है । आज के प्रतिमा लेखों में भी, जब कि भाषाओं की उन्नति आशातीत होती चली जा रही है, हमारे शिलालेख लिखनेवाले भाषा को विकाश नहीं दे रहे हैं। उसी रूढरूप को आप्त और शास्त्रीय मान बैठे हैं, और शैली को मी रुड़ बना दिया है।
१ अ-प्रत्येक लेख की आदि में संवत् ।
ब-तत्पश्चात् माह, तिधि और दिवस । अधिक प्राचीन लेखों की आदि में अधिकतर केवल संवत् का ही उल्लेख मिलता है। जैसे लेखाङ्क १८७, ३२१, ३२३, ३३३ को देखिये। तेरहवीं शताब्दि से संक्त् , माह, तिथि, दिवस का उल्लेख नियमित रूप से मिलता है।
२ संवत्, दिवसादि के पश्चात् व्यवहारी, श्रेष्ठि के ग्राम, ज्ञाति, गोत्र और कहीं गच्छ का उल्लेख होता है। ग्राम का नाम लेखों के अन्त में भी पाया जाता है। किसी किसी लेख में ये सर्वाङ्ग न होकर कम भी होते हैं ।
३ तत्पश्रात् व्यवहारी-प्रेष्ठि का नाम या उसके पूर्वजों
"Aho Shrut Gyanam"