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हैन पत्रारत्व
था । तीर्थंकर में किसी रचना का प्रकाशन तभी होता था, जब उसमें कोई जान हो, कोई संदेश हो । भाषा और भाव दोनों का सौष्ठव होने पर ही रचना प्रकाश में आती थी। तीर्थंकर में उन्होंने समय-समय पर अनेक आचार्यों, सन्तों एवं विशिष्ट व्यक्तियों के साथ विशिष्ट विषयों पर हुए वार्तालापों को प्रकाशित किया, जिससे पत्रिका की सजीवता को बल मिला। आचार्य विद्यानन्द, आचार्य विद्यासागर, मुनि सुशीलकुमार, आचार्य तुलसी, युवाचार्य महाप्रज्ञ, मुनि जयंतविजय 'मधुकर', साध्वी विचक्षणा श्रीजी, साध्वी मणिप्रभाजी, मुनि अभयसागरजी, आचार्य समन्तभद्रजी, मुनि श्री नगराजजी, आचार्य नानालालजी, साध्वी कनकप्रभाजी आदि आचार्यों, सन्तों एवं साध्वियों के साथ हुए जीवन्त संवादों से पाठकों को उनके वैचारिक मनोभावों को जानने का अवसर प्राप्त हुआ। विद्वानों एवं साहित्यकारों में श्री जैनेन्द्र जैन श्री वीरेन्द्रकुमार जैन, डॉ. प्रभाकर माचवे, पं. फूलचन्द शास्त्री, श्री अभय छजलानी, डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, श्री मोतीलाल सुराना आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, निजके साथ हुए वार्तालापों को तीर्थंकर में प्रकाशित किया गया। समाजसेवियों में श्री बाबूलालजी पाटौटी, साहू श्री श्रेयांसप्रसाद जैन, श्री विशालचन्द अजमेरा, धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेगड़े, श्री शरयू दफतरी, श्री ज्ञानचन्द खिन्दूका, श्री सरदारमल कांकरिया, श्री रामकृष्ण बजाज आदि के साथ भी उनकी जो बातचीत हुई उसे तीर्थंकर पत्रिका में प्रकाशित किया गया था। इन संवादों के माध्यम से विभिन्न प्रासंगिक विषयों पर पाठकों की विश्लेषणात्मक जानकारी प्राप्ती होती है। तीर्थंकर पत्रिका के कुळ सम्पादकीय आलेखों का प्रकाशन स्वतन्त्र पुस्तकों के रुप में भी हुआ। 'जहर, अमृत, चुनोतियाँ' इसी प्रकार की पुस्तक है जिसमें लघुलेख प्रकाशित हैं, जिनके शीर्षक इस प्रकार हैं -
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जहर के अन्तर्गत १. तनाव २. गलतफहमी ३. अपेक्षाएँ ४. मद ५. लोभ - लिप्सा ६. अविश्वास ७. निन्दा ८ द्वेष ९. प्रभाव १०. हम छोटे हैं ११. हम बड़े हैं १२. स्वार्थ १३. जल्दबाजी १४. जलन
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