Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 124
________________ व्यंजनावग्रह - प्राप्त अर्थ का ग्रहण, व्यक्त शब्द का अव्यक्त ग्रहण | व्यतिक्रम - अतिक्रम और अतिचार के बीच की स्थिति । - व्यतिरेक - कार्य-कारण-भाव, कारण के अभाव मे कार्य के अभाव की स्वीकृति । व्यय - पूर्व - पर्याय का विनाश । व्यवसाय - अन्वेषित पदार्थ का निश्चय ; अनुष्ठेय के अनुष्ठान में उत्साह | व्यवहार - नय - विशेष, वस्तु-परीक्षा का एक दृष्टिकोण ; मुमुक्षु की प्रवृत्ति - निवृत्ति का आधारभूत ज्ञान विशेष, दोषशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रायश्चित्त, लोक परम्परा । व्यवहार चारित्र - असयम से निवृत्ति एव सयम में प्रवृत्ति । व्यवहार-नय-वस्तु-परीक्षा का एक दृष्टिकोण | व्यसन -- बुरी आदत, शरीर के साथ आत्म-प्रगाढता । व्यामोह - अपने या अपनों के लिए धन, ऐश्वर्य, यश आदि बटोरने की अन्धी वासना । व्यावच्च - वैयावृत्य | व्युत्सर्ग-दोष त्याग, मानसिक, वाचिक और कायिक [ ११६ ]

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