Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 133
________________ संघ-नायक-आचार्य । संघस्थविर-संघनायक। संघात-परमाणुओ के संयुक्त/संश्लिष्ट होने की क्रिया। सचित्त-चैतन्य-सहित अवस्था ; जीवन-सयुक्तता। सचित्ताहार-जीव की गतिविधियो से युक्त आहार । संज्वलन-कषाय के साथ एकीकृत होकर की जाने वाली अभिव्यक्ति। "संज्ञा-इन्द्रिय-ज्ञान , वासना ; वांछा ; ये चार हैं--आहार, भय, मैथुन, परिग्रह । संजी-समनस्क ; मन-सहित । सत्-होना; द्रव्य का लक्षण ; स्वकीय गुणो एवं पर्यायो का परिव्यापक ; उत्पत्ति, हास एव स्थायित्व युक्त तत्व । सत्ता- सत् का स्वरूप। सत्य-प्रामाणिकता की प्रस्तुति , क्लेश-रहित मधुर वचन ___ व्यवहार ; दूसरा व्रत ; दस धर्मों में चौथा । सत्यासत्य-असत्य के आश्रित सत्य वचन । सत्त्व-जीव; कर्मों का अस्तित्व ; आत्मद्रव्य की मौलिकता। सत्त्वप्रकृति-बंध की सम्भावनाओ से मुक्त कर्म-प्रवृत्ति । संथारा-सल्लेखना ; जीवन-पर्यन्त अनशन : देखें-सल्लेखना। [ १२५ ]

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