Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 135
________________ होना ; समान लिंग वाले एकार्थवाची शब्दों में भी अर्थभेद स्वीकार करने वाला दृष्टिकोण । समय-काल का वह अंश जिसका विभाग नही किया जा सकता ; जीव; चेतन्य-स्वभाव ; आत्मा; धर्म या मत। समयसार-विकल्प-मुक्त आत्म-स्वभाव । समाचार-आचार-दर्शन; अतिचार-रहित आचरण । समाचारी-आचारपरक अनुशासन ; साधु की आचार-संहिता। समाधि-अन्तरंगीय स्वास्थ्य का सेवन ; स्थिति ; निर्विकल्प ध्यान । समाधिमरण-आत्म-साधना के साथ शान्तिपूर्वक देह का विसर्जन। समारम्भ-दूसरो को सन्ताप पहुंचाने वाला व्यापार ; हिसा का आचरण । समिति-यतनाचारपूर्वक प्रवृत्ति । समुदय-अनन्त संघातों का प्रचय । समुद्घात-कर्म-निर्जरा विशेष ; आत्म-प्रदेशो का विस्तार ; मूल शरीर को त्याग किये बिना जीव के प्रदेशों का बाहर निकलना। [ १२७ ]

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