Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 143
________________ सावद्य-वचन-प्राणी पीडाकारी भाषा। सासादन-गुणस्थानक विशेष ; साधक की दूसरी भूमिका ; इसकी प्राप्ति एक क्षण के लिए तब होती है, जब साधक कर्मोदयवश सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व की ओर अभिमुख होता है, किन्तु मिथ्यात्व-दशा में प्रवेश नही पाता। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-इन्द्रिय और मन के द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान। सिद्ध-परमात्मा ; कर्म-मुक्त हो जाने पर देह छोड़कर लोकाग्र स्थित होने वाला ; प्रभावक-पुरुष ; सिद्धि सम्पन्न योगी। सिद्धि-मोक्ष-प्राप्ति ; कार्य की परिपूर्णता ; शक्ति-विशेष । सुषम-दुषमा-काल-विशेष ; अवसर्पिणी-काल का तीसरा और उत्सर्पिणी का चौथा आरा; दो कोटाकोटि सागरोपम का काल । सुषम-सुषमा-काल-विशेष ; अवसर्पिणी का पहला और उत्सर्पिणी का छठा आरा; चार कोटाकोटि सागरोपम का काल। [ १३५ ]

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