Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 136
________________ सम्पराय - कर्मों के द्वारा आत्मा का पराभव ; चतुर्गति स्वरूप ससार । सम्भोग - साधुओ में वस्त्र पात्र आदि का आदान-प्रदान | सम्मूर्च्छन - जन्म-विशेष, स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही जीवो की उत्पत्ति, बाहरी वातावरण के संयोग से जन्मे जीव । सम्मूच्छिम - त्रस-भेद, रजवीर्य के बिना शरीर रचना से उत्पन्न जीव | देखें - सम्मूर्च्छन । सम्मोह - अतिशय मूढ़ता | सम्यक् - समुचित; यथार्थ । " सम्यक् चारित्र - मोक्ष मार्ग पर विचरण अन्तरमार्ग की ओर गति, संयम - जीवन का पालन । सम्यक्त्व - अस्तित्व-बोध, सत्य के प्रति जिज्ञासा एवं उसके प्रति निष्ठा, तत्त्वार्थ श्रद्धान। देखें- मम्यग्दर्शन । सम्यक्त्व - क्रिया - सम्यक्त्व बढाने वाली आचार-वृत्ति । सम्यक्त्व मिथ्यात्व - फल देने वाली शक्ति को कुठित करने वाली मिश्रित कर्म- स्थिति । सम्यक् मिथ्यादृष्टि - मिश्रदृष्टि वाला जीव ; असत्य - दोनो तत्त्वो के प्रति विश्वासी । [ १२८ ] 1 सत्य और +

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