Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 122
________________ विवेक-वस्तु-स्वरूप का निर्णय , यतना ; उपयोग , विचार पूर्वक कार्य करना। विशुद्धि-कषाय का अभाव ; आत्म-निर्मलता।। विशेष-एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ से भिन्नता , विसदृश परिणाम । विषय-द्रव्य-पर्याय रूप अर्थ , इन्द्रियो के रस आदि विषय । विषयी-इन्द्रिय । विसम्भोग-दान आदि के द्वारा संव्यवहार का अभाव । विसंवाद-विपरीत कथन, प्ररूपणा । विहायोगति-आकाश-मार्ग से गमन , कर्म का एक भेद । विहार-देश-देशान्तर में गमन । विचार-अर्थ, व्यंजन और योग का परिवर्तन । वीतराग-आत्म-विजेता , राग-द्वेष से मुक्त साधक । वीरासन-दोनों पैरो को दोनो जंघाओ के ऊपर रखना । वीर्य-शक्ति-विशेष ; आत्म-परिणाम । वीर्याचार-प्रयत्नपूर्वक तप में प्रवृत्ति , सदाचार एवं सद्विचार ___ मूलक कार्यों में शक्ति का उपयोग । वीर्यान्तराय-वीर्य-क्षय , शक्ति-अवरोध कर्म का भेद । [ ११४ ]

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