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संवर - आस्रव का निरोध, योग-चित्तवृत्ति का निरोध । संवर
वाचक उमास्वाति" लिखते है-आनव-द्वार का निरोध करना संवर है"। आचार्य पूज्यपाद" लिखते हैं-"जो शुभ-अशुभ कर्मों के आगमन के लिये द्वार रूप है, वह आस्रव है, जिसका लक्षण आस्रव का निरोध करना है, वह संवर है।"आचार्य हेमचन्द्र" सूरि का कथन है-"जो सर्व मानवों के निरोध का हेतु है, उसे संवर कहते हैं।" जिस तरह नौका में छिद्रों से जल प्रवेश पाता है और छिद्रों को रूंघ देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि-आरुवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत्त जीव के प्रदेशों में कर्म-द्रव्यों का प्रवेश नही होता" । द्रव्य-संवर और भाव-संघर
ये दो भेद श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ग्रन्धों में मिलते हैं। इन की निम्न परिभाषाएं मिलती हैं। योग-चित्तवृत्तियों का निरोध ___ महपि पतंजलि लिखते हैं "योगश्चित्तवृत्तिगिरोध :'"' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का रोकना योग है। चित्त की वृत्तियां जो बाहर को जाती हैं, उन बहिर्मुख वृत्तियों को सांसारिक विषयों से हटा कर उससे उल्टा अर्थात् अन्तर्मुख करके अपने कारण-चित्त में लीन कर देना योग है।
चित्त मानो अगाध परिपूर्ण सागर का जल है । जिस प्रकार बह पृथिवी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील आदि के आन्तरिक तदाकार परिणाम को प्राप्त होता है, उसी प्रकार चित्त आन्तर-राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, भय-आदि रूप आकार से परिणत होता रहता है तथा जिस प्रकार वायु आदि के वेग से जलरूपी तरंग उठती है, इसी प्रकार चित्त इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उन जैसे आकारों में परिणत होता रहता हैं। ये सब चित्त की वृत्तियां कहलाती है, जो अनन्त हैं और प्रतिक्षण उदय होती रहती है।
वृत्तियां सामान्यत: दो प्रकार की हैं-क्लिप्ट अर्थात् रागद्वेषादि क्लेशों की हेतु, और अक्लिष्ट अर्थात् राग-पादि क्लेशों को नाश करने वाली ।" उनके पांच प्रकार इस प्रकार हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति' ।" पांच महावत एवं पांच सार्वभौम यम
जैन दर्शन में आत्म-साधना-आनव-निरोध के लिये पांच महाव्रतों की पालना के लिये पांच सार्वभौम यमों की प्रतिष्ठा की गई है।
हिंसा, सत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह" से (मन, वचन और काय द्वारा) निवृत्त होना व्रत है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच यम हैं। मन से, वचन से और शरीर से (कर्म से) सभी प्राणियों की किसी प्रकार से (करने, कराने अनुमोदन करने) हिंसा- कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है।" वण १४, अंक ४ (मार्च, ८८)