Book Title: Jain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Author(s): Ratnalal Jain
Publisher: Ratnalal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 143
________________ नारक आयुष्य, तिथंच आयुष्य रूप में संक्रम नहीं करता। इसी तरह अन्य आयुष्य भी परस्पर असं क्रमशील हैं ।' एक बार गौतम ने पूछा " - 'भगवन् ! किए हुए पाप कर्मों का फल भोगे बिना उनसे मुक्ति नहीं होती, क्या यह सच है ?" भगवान् ने उत्तर दिया- "गौतम ! यह सच है । नैरयिक, तियंच, मनुष्य और देव - सब जीव किए पाप कर्मों का फल भोगे बिना उनसे मुक्त नहीं होते ।" भगवान् महावीर ने आगे कहा" - "गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं - ( १ ) प्रदेश" कर्म और (२) अनुभाग " कर्म । जो प्रदेश कर्म है वे नियमतः मांगे जाते हैं और जो अनुभाग कर्म हैं वे कुछ भोगे जाते हैं और कुछ नहीं भोगे जाते । गीतम ने पुनः पूछा- भगवान् ! अन्य यूथिक कहते हैं— सब जीव एवं भूत-वेदना (जैसा कर्म बांधा है वैसे ही) भोगते हैं, यह कैसे है ? 1 भगवान् बोले - गौतम ! अन्य यूधिक जो ऐसा कहते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। मैं तो ऐसे कहता हूं कई जीव एवं भूत वेदना भोगते हैं और कई अन्-एवं भूत वेदना भी भोगते है | जो जीब किए हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं। जो जीव किए हुए कर्मों से अन्यथा भी वेदना वेदना भोगते हैं ।" भोगते हैं वे एवं भूत बेदना भोगते हैं, वे अन्-एवं भूत इसी प्रकार स्थानांग सूत्र की निम्न गाया में भगवान् महावीर ने मनुष्य को अपने पुरुषार्थ को जागृत करने का सन्देश दिया है विहे कम्मे पण ते तं जहासुभ नाम मेगे सुभ बिबागे, सुमे नाम मेने असुभविबागे । असुभे नाम मेगे सुभ बिवागे, असुने जाम मेगे असुभ बिवागे ।" --कुछ कर्म शुभ होते हैं, उनका विपाक भी शुभ होता है । कुछ कर्म शुभ होते हैं, पर उनका विपाक अशुभ होता है । कुछ कम अशुभ होते हैं, पर उनका विपाक शुभ होता है । कुछ कर्म. अशुभ होते हैं, और उनका विपाक भी अशुभ होता है । 'दूसरे शब्दों में, बन्धा हुआ है हुआ है पापकर्म, पर उसका विपाक सारा संक्रमण का सिद्धांत है ।' : जो शुभ रूप में बन्धा है. उसका विपाक शुभ होता है। यह एक विकल्प है । खण्ड १८, अंक ३, (अक्टू० - दिस०, ९२ ) पुण्य कर्म पर उसका विपाक होता है पाप, बम्धा होता है पुण्य । कितनी विचित्र बात है-मह

Loading...

Page Navigation
1 ... 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171