Book Title: Jain Karm Siddhanta aur Manovigyan ki Bhasha
Author(s): Ratnalal Jain
Publisher: Ratnalal Jain

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Page 153
________________ कर्म के बीज-राग और देख भगवान् महावीर ने कहा है'राग और रेप-ये दोनों कर्म के बीज कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म-मरण का मूल है। जन्म-मरण से दुख होता है। प्रीति और अप्रीति-राग और द्वेष दो ही प्रकार की अनुभूतियां हैं, एक है प्रीत्यात्मक अनुभूति और दूसरी । अप्रीत्यात्मक अनुभूति। प्रोत्यात्मक अनु पूति या संवेदना को राग कहते है और अप्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को देव कहते पातंजल, योग दर्शन में कहा गया है'मुखानुशयी रागः " सुख भोगने की इच्छा यग है। दुःखानुशयो रेषः . दुःख के अनुभव के पीछे जो घृणा की वासना चित्त में रहती है, उसे देष कहते । राग का स्वरूप "इष्ट पदार्थों के प्रति रतिपाव को राग कहते हैं। धवला में कहा है - माया--लोप-वेदत्रय हास्य रतयो रागः .. -माया, लोभ, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नंपुसकवेद (काम भाव), हास्य और रति-इनका नाम राग है। वाचकवर्य उमास्वाति ने लिखा है इच्छा, मूर्छा, काम, सेह, गृद्धता, ममता, अभिनन्दन, प्रसन्नता और अभिलाषा आदि अनेक राग माव के पर्यायवाची है। चार कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ में माया और लोम को राग की संज्ञा दी गई है। माया के पर्यायवाची शब्द माया के निम्नलिखित नाम : १. माया- कपटाचार. . .

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