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'तिर्यंच और मनुष्यों के इस इन्द्रियगोचर स्थूल शरीर को बौदारिक शरी र कहते हैं । इसके निमिव से होने वाला आत्म-मृदेशों का परिस्पंदन बौदारिक काय -योग कहलाता है । शरार धारण के प्रथम तीन समयों में जब • तक इस शरीर का पर्याप्ति पुर्ण नहीं हो जाती, तब तक इसके साथ कार्मण शरीर की प्रधानता रहने के कारणशरीर व योग दोनों मिल कहलाते हैं । क्षियिक शरीर -- वणिमा, महिमा आदि वाठ गुणों के ऐश्वर्य के सम्बन्ध से रक, वने, छोटा, बड़ा वादि नाना प्रकार का शरीर करना विक्रिया है । वह विकिया जिस शरीर का प्रयोजन है, वह वैझियिक शरीर है । 'देवों बोर नारकियों के चा-गोचर शरो। विशेष को वैकियिक शरीर कहते हैं । यह छोटे-बड़े हल्के भारी वनेक प्रकार के रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है ।
बाहारक शरीर- 'जिसके द्वारा आत्मा सुक्ष्म पदार्थों का बाहरण करता है, उसको आहारक शरार कहते हैं ।" जीव हर अवस्था में निरन्तर नोकर्माहार ग्रहण करता रहता है, इसलिए भले ही वह कवलाहार करे अथवा न करे, वह बाहारक कहलाता है । जन्म धारण के प्रथम तण से ही वह वा हारक हो जाता है । ५
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१ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ४७० । २- (क) सर्वार्थसिद्धि, २०३६।१६१।६ -
अष्ट गुणेश्वर्ययोगादेकाकाणुमहरा र विविधकरण विकिया,
सा प्रयोजनमस्येति वकियकम् । (ख) धवला, ११४५६।२६११६ ३- जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ६०१ ४- घवला, १, १।५६२६२-३: ।
बाहरति वात्मसाकरोति सूक्ष्माननिति आहारः । ५- जैनेन्द्र सिद्धान्त कौश, भाग १, पृ० २६३ ।।