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चरक संहिता में शरीर-रचना-- चक संहिता के शरीरस्थानक में शरीरसंरचना के विषय में लिखा है- 'सबसे पूर्व मन पी कारण के साथ संयुक्त हुवा वात्मा धातुगुण के ग्रहण करने के लिए अथवा महाभूतों के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है । वात्मा का जैसा कर्म होता है और जैसा मन उसके साथ होता है, वैसा ही शरीर बनता है, वैसे ही पृथिवी आदि मृत होते हैं तथा अपने कर्म दारा प्रेरित किये हुए मापी साधन के साथ स्थूल शरीर को उत्पन्न करने के लिए उपादानभुत भुतों को गहण करता है ।
यह आत्मा हेतु, कारण, निमिच, कना, मन्ता, बोधयिता, बोदा, दृष्टा, पाता, सा, विश्व कर्मा, विश्वरूप, पुरुष प्रभव, वव्यय, नित्यगुणी, भूतों को ग्रहण करने वाला प्रधान, अव्यक, जीवज्ञ, प्रफुल, चेतनावान, प्रभु, भूतात्मा, न्य, ना वोर अन्तरात्मा कहलाता है ।
यह जी व गमाशय में अनुपविष्ट होकर + बोर शोणित से मिलकर अपने से, अपने को गर्भ .प में उत्पन्न करता है, अतएव गर्भ में इसकी बात्मसंज्ञा होती
------------- १- चरक शा० ४।४:
तत्र पूर्व चेतनाधातुः सत्वकरणो गुणगुणाय पुनः प्रवर्तते । स हि हेतुः कारण निमितमतारं कर्ता मन्ता बोधयिता बोधा दृष्टा, धाता बला विश्वकर्मा विश्वरूप: पुरुष: प्रभवो बव्ययों नित्यो गुणी गर्जा प्राधान्यमव्यक्तं जीवो ज्ञ: प्रकुलश्चेतनावान् प्रभुश्च मृतात्मा चेन्द्रियात्मा बान्तरात्मा
चेति । २- चरक शा०, ३।१२: स (आत्मा) गर्भाशयमनुपविश्य शक शोणिता म्यां
संयोगमैत्व गर्भत्वेन जनवत्वात्मनात्मानम् आत्मसंज्ञा हि गर्ने ।