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वर्ष - 2, अंक-2, मार्च - 90, 27-37
अर्हत्वचन
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ. इन्दौर
कर्म को विचित्र गति - मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में
रतनलाल जैन *
'कर्म'' भारतीय दर्शन का एक प्रतिष्ठित सिद्धान्त है। उस पर लगभग सभी पुनर्जन्मवादी दर्शनों ने विमर्श प्रस्तुत किया है। पूरी तटस्थता के साथ कहा जा सकता है कि इस विषय का सर्वाधिक विकास जैन दर्शन में हुआ है।' - युवाचार्य महाप्रज्ञ * *
कर्म को विचित्रता
महापुराण में कर्मरूपी श्रह्मा के पर्यायवाची शब्दों के बारे में लिखा है
'विधि, सुष्टा, विधाता, दैव, पुरा कृतम और ईश्वर -- ये कर्मरूपी ब्रह्मा के वाचक शब्द हैं।' इस प्रकार कर्म को ब्रह्मा के रूप में ही मान लिया गया।
नीति शतक में लिखा है कि कर्म तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश से भी अनेक प्रकार से नाच, नचवाता है
'जो कर्म ब्रह्मा जी को कुम्हार के समान ब्रह्माण्ड रूपी भांड में स्थापित करता है । जो भगवान् विष्णु को दस अवतारों के महान और बड़े भारी संकट में डाल देता है और जो महादेव के हाथ में कपाल फुटे हुए घड़े का आधा भाग देकर उनसे भिक्षा के लिए भ्रमण कराता है, तथा जिसके प्रभाव से सूर्य निरन्तर आकाश में भ्रमण करता है, उस कर्म को नमस्कार हो । ' जनदर्शन में
मनुष्यों में
शरीर, मन और वृद्धि आदि को लेकर असंख्य विभिन्नताएँ हैं ।
(श्वे. ) जैनाचार्य देवेन्द्रसूरि ने कर्म की विचित्रता- विविधता का इस प्रकार उद्घाटन किया है
'राजा-रंक', सुन्दर कुरूप, धनवान् धनहीन, वलवान्- निर्बल, स्वस्थ रोगी, भाग्यशालीअभागा -- इन सब में मनुष्यत्व समान होने पर भी जो अन्तर-- जो भेद दिखाई देता है, वह सब कर्म कृत है। और वह कर्म जीव के बिना नहीं हो सकता। कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है ? 4
गौतम स्वामी ने पूछा
'हे भगवन् ! क्या जीब के सुख-दुःख तथा विभिन्न प्रकार की अवस्थाएं कर्म की विभिन्नताविचित्रता या विविधता पर निर्भर है, अकर्म पर तो नहीं ?"
भगवान महावीर ने कहा
गली आर्य समाज, हाँसी-125033 (हिसार)
श्वेताम्बर जैन तेरापंथ धर्मसंघ में दीक्षित युवाचार्य महाप्रश, आचार्य तुलसी के शिष्य हैं। प्राकृत एवं जैनदर्शन के आप उद्भट विद्वान है ।