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अध्याय 33]
अभिलेखीय सामग्री एक अन्य अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस मंदिर-समूह के नेमिनाथ-महातीर्थ का निर्माण मंत्री तेजपाल ने विक्रम संवत् १२५७ (१२००-१२०१ ई०) में कराया था, अन्य अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसी ने उस मंदिर में अनेक उप-गर्भालयों तथा देवकुलिकाओं का भी निर्माण कराया था। एक तीसरे अभिलेख के अनुसार विक्रम संवत् १२६३ (१२३६-३७ ई०) में लूणा-वसहिका में बहुत से उप-गर्भालयों तथा देवकुलिकाओं का निर्माण हुआ तथा और भी मूर्तियाँ स्थापित की गयीं। इसी अभिलेख में लिखा है कि शत्रंजय, जावालिपूर, तारणगढ़, अणहिल्लपूर, वीजापूर लाटापल्ली, प्रह्लादनपुर, नागपुर और स्वयं प्रर्बदाचल के जैन मंदिरों में भी इसी प्रकार के संवर्धन किये गये।
इसके अतिरिक्त, जालोर के एक अभिलेख से सूचित होता है कि चालुक्य कुमारपाल के द्वारा विक्रम संवत् १२२१ (११६४ ई०) में निर्मित कूवर-विहार का नवीनीकरण विक्रम संवत् १२४२ (११८५ ई.) में चाहमान समरसिंह ने कराया, विक्रम संवत् १२५६ (११६६ ई०) में उसके मूल शिखर पर स्वर्णमय ध्वज-दण्ड लगाया गया, और विक्रम संवत् १२६२ (१२०५ ई०) में मध्य-मण्डप पर एक स्वर्णमय कलश की स्थापना की गयी।
इन अभिलेखों में मंदिर शब्द के लिए पर्यायवाची रूप में चैत्य, वसति, हर्म्य, मंदिर, वेश्म, विहार, भुवन, प्रासाद, और स्थान शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसके साथ, इन अधिकतर तिथ्यंकित अभिलेखों से मंदिरों या उप-गर्भालयों के पृथक्-पृथक् (देवकुलिका, चतुर्मुख-देवकुलिका, पालय-रूप देवकुलिका, महातीर्थ, तीर्थ, देहरी) या सामूहिक (देवकुलिका-द्वयम्, देवकुलिका-त्रयम् आदि) के निर्माण और नवीनीकरण के विषय में उपयोगी और विश्वसनीय तथ्य प्राप्त होते हैं और कभी-कभी तो उनसे स्थापत्य-संबंधी विशेषताओं (बिम्ब-दण्ड-कलशादि-सहिता देवकलिका) पर भी अच्छा प्रकाश पडता है । इनमें से कई अभिलेखों से इन मंदिरों के समूचे या आंशिक जीर्णोद्धार, (विहार-जीर्णोद्धार, तीर्थसमुद्धार, तीर्थोद्धार, चैत्य-जीर्णोद्धार, आदि) के विषय में भी सूचनाएं मिलती हैं। इन अनेक अभिलेखों में सैकड़ों पृथक्-पृथक् (खत्तक) या सामूहिक (खत्तक-द्वयम् आदि) देवकोष्ठों के निर्माण के वृत्तांत भी आये हैं। इनमें से अधिकतर अभिलेखों में मूर्तियों के निर्माण, स्थापना और प्रतिष्ठा के उल्लेख हैं, कभी पृथक्-पृथक् (प्रतिमा, मूर्ति, बिम्ब) और कभी सामूहिक रूप में (जिन-युगलम्, जिन-युगल-द्वयम्, जिन-युग्मम्, मूर्ति-युग्मम्, त्रि-तीथिका, पंच-तीथिका, चतुर्विशति-पट्ट, चौबीसी-पट्ट, द्वासप्तति-जिनपट्टिका, द्विसप्तति--तीर्थंकर-पट्ट, ६६-जिन-पट्टिका आदि)। बहुत से अभिलेखों में इन मूर्तियों के परिकार (अष्ट-महाप्रतिहार्य आदि) से विशिष्ट होने का उल्लेख मिलता है। कुछ थोड़े से अभिलेखों में मूर्तियों की वस्तु और आकार का निर्देश भी किया गया है (जैसे १०८-मान-प्रमाणं सपरिकरं प्रथम-जिन-बिम्बम्, पित्तलमय-४१-अंगुल-प्रमाण-प्रथम-जिन-मूल-नायक-परिकरे श्रीशीतलनाथ-बिम्बम.
1 वही, क्रमांक 260. 2 वही, क्रमांक 352. 3 जैन इंस्क्रिप्शंस. संकलन और संपादन : पूरनचंद नाहर, भाग 1. 1918. कलकत्ता. पृ239
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