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अध्याय 35 ]
मूर्तिशास्त्र
की दो या तीन पट्टियों में कई पंक्तियों में चौदह स्वप्नों की लघु प्राकृतियाँ अंकित होती हैं । विभिन्न तीर्थंकरों के जीवन-प्रसंगों के अंतर्गत पाषाण शिल्प में भी ये स्वप्न प्रस्तुत किये गये । चित्र ३१३ कुंभारिया के एक मंदिर की छत का है जिसपर अंकित महावीर के जीवन-प्रसंगों के अंतर्गत इन स्वप्नों का भी अंकन है ।
प्राचीन भारत में अत्यंत पुरातन होने पर भी और सभी वर्गों में प्रचलित होने पर भी मंगलस्वप्नों की मान्यता तीर्थंकरों के जीवन-प्रसंगों में कुछ बाद के काल में समाविष्ट हुई । उपलब्ध विवरणों में जो कदाचित् सर्वाधिक प्राचीन है ऐसे एक कल्प- सूत्र के विवरण में दीनार-माला का संदर्भ आया है । इससे प्रकट होता है कि इस ग्रंथ का यह अंश उस काल के बाद लिखा गया जब दीनार नामक मुद्रा का भारत में प्रवेश और परिचय हुआ । स्वप्नों की इससे पूर्व की कोई प्रस्तुति उपलब्ध नहीं । चक्रवर्तियों, वासुदेवों और बलदेवों की माताओं के स्वप्नों का विधान इससे भी बाद 'हुआ होगा ।
में
दिगंबर परंपरा के अनुसार तीर्थंकर माता के सोलह स्वप्न ये हैं : ( १ ) इंद्र का गज ऐरावत, (२) सर्वोत्तम वृषभ, ( ३ ) श्वेत वर्ण और रक्तिम केसर सहित सिंह, (४) देवी पद्मा (श्री) जो स्वर्णकमल पर आसीन हो और गजों के द्वारा अभिषिक्त की जा रही हो, (५) उत्कृष्ट कुसुमों की दो मालाएँ, (६) चंद्रमा, (७) उदयाचल शिखर पर उदीयमान सूर्य, (८) मुख पर कमलों से अलंकृत दो पूर्णकुंभ, (९) मीन - युगल, (१०) दिव्य सरोवर, (११) उमड़ता समुद्र, (१२) स्वर्णमय उच्च सिंहासन, (१३) दिव्य विमान, (१४) नागेंद्र भवन, (१५) रत्न - राशि, (१६) निर्धूम अग्नि 12
सोलह स्वप्नों की प्रस्तुति दिगंबर जैनों में अत्यंत प्रचलित रही, तभी तो वह मंदिरों में द्वारों केसरदलों पर भी की गयी मिलती है, जिसका एक आरंभिक उदाहरण खजुराहो के शांतिनाथ मंदिर के द्वार पर विद्यमान है। खजुराहो के कुछ अन्य मंदिरों के द्वारों पर भी स्वप्नों के अंकन हुए मिलते हैं ।
जैन मान्यताओं के अनुसार, इनसे कुछ कम संख्या में स्वप्न वासुदेव, बलदेव, आदि
पवित्र - कल्पसूत्र के अपने (समीक्षाश्मक) संस्करण की प्रस्तावना में मुनि श्रीपुण्यविजय ने पू 10 पर लिखा है कि कल्पसूत्र में श्राये चौदह स्वप्नों का विस्तृत विवरण इसी ग्रंथ की प्रगस्त्य सिंह - सूरि की चूर्णि में नहीं मिलता । इसलिए यह कहना कठिन है कि इस ग्रंथ का यह भाग मौलिक है । वे लिखते हैं कि दशाश्रुतस्कंध ( जिसके आठवें अध्ययन के रूप में कल्पसूत्र है ) की नियुक्ति और चूर्ण, दोनों का काल लगभग 350 ई० या उसके पूर्व से प्रारंभ होता है.
2 जिनसेन का आदि-पुराण, सगँ 12, श्लोक 101-19, जिनसेन का हरिवंशपुराण, सगँ 8, श्लोक 58-744
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