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सिद्धांत एवं प्रतीकार्य
[ भाग १ पौराणिक प्रतीकों समवसरण, मान-स्तंभ, गंध-कुटी, अष्टापद आदि, लोकविद्या-संबंधी मेरु, नंदीश्वर द्वीप आदि और इसी तरह मूर्तिशास्त्र-संबंधी प्रतीकों के व्यावहारिक रूप अपने-अपने ग्रंथों के विधानों के पूर्णतया अनुरूप बहुत कम ही दृष्टिगत हुए हैं, यहाँ तक कि उनकी अनुरूपता साहित्यिक संदर्भो से भी अपर्याप्त होती है, यद्यपि ये संदर्भ विशेष रूप से प्रतीकों के विषय में, कई कारणों से विषय-विशेष के ग्रंथों का ही काम करते है। सच तो यह है कि समवसरण, नंदीश्वर-द्वीप आदि विशाल तथा जटिल रचनाओं को विस्तृत वास्तु-कृतियों के रूप में भी पूर्णतया यथावत् प्रतिष्ठित करना किसी भी स्थपति या मतिकार के लिए प्रायः असंभव है।
गोपीलाल अमर
1 इस अध्याय के रेखाचित्रों का आधार अनलिखित है। भगवानदास जैन द्वारा संपादित वत्थुसार-पयरण
(4510, टिप्पणी 5); प्रभाशंकर ओघडभाई सोमपुरा द्वारा संपादित विश्वकर्मा का दीपार्णव (4510, टिप्पणी 1); और मुजफ्फरपुर से 1957 में प्रकाशित ब्रह्मचारी मुक्त्यानंद सिंह की मोक्षशास्त्र-कौमुवी.
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