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अध्याय 36 ]
स्थापत्य
है कि अन्य परंपराओं के मंदिरों के मध्य एक जैन मंदिर की पहचान के लिए सूक्ष्म परीक्षा की आवश्यकता होती है, या फिर उसके लिए किसी अभिलेख, या साहित्य का स्पष्ट उल्लेख, या परंपरागत प्रमाण, या किसी मूर्ति का होना मावश्यक है। जैन मूर्तिकला का विकास भी समकालीन परंपराओं के साथ हुआ किन्तु एक ही प्रवाह में नहीं, जबकि जैन मंदिर उसी प्रवाह में विकसित हुआ, इसका परिणाम यह भी हुआ कि जैन स्थापत्य के सिद्धांत का प्रतिपादन करने को पृथक् रूप से लिखे गये ग्रंथों की संख्या अत्यंत कम है ।
मंदिर के अंग और भेद
देव - प्रासाद का गर्त विवर या नीव का गड्ढा इतना गहरा हो कि वहाँ या तो भूगर्भ से जल निकलने लगे या शिला-तल निकल आये । गर्त-विवर के मध्य में धार्मिक अनुष्ठानों के साथ एक कर्मशिला की स्थापना की जाये जिसपर कूर्म की आकृति उत्कीर्ण हो, श्रीर चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में एक-एक खुर - शिला स्थापित की जाये जिनपर विभिन्न वस्तुएँ उत्कीर्ण हों (रेखाचित्र २९) । इसके पश्चात् विवर को सघनता से भर दिया जाये और उसके तल को कूटकर ठोस बना दिया जाये ।
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1 मुख्यतः वत्थुसार पयरण पर आधारित.
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रेखाचित्र 29
महिला (भगवान दास जैन के अनुसार) 9. कच्छप 7 लहर 8 मीन 1. मेढक
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2. मकर; 3. ग्रास; 4. पूर्ण घट; 5. सर्प; 6. शंख; 16. वज्र; 17 शक्ति 10. दण्ड; 11. कृपाण;
12. नाग-पाश; 13. पताका; 14. गदा; 15. त्रिशूल
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