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सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ
[ भाग १ से सहित बलिपट्टों की अति प्राचीन परंपरा का परिज्ञान था ।।
अष्ट-मंगलों की प्रस्तुति जैन पाण्डुलिपियों के चित्रांकनों में, विभिन्न प्रकार के पटचित्रों में और विज्ञप्ति-पत्रों के किनारे की पट्टियों में हए चित्रांकनों में भी की गयी। जैन मंदिरों में स्थापित धातु-मूर्तियों के साथ, अष्ट-मंगलों से अंकित धातु-निर्मित तश्तरियाँ (यंत्र) भी स्थापित की और पूजी जाती हैं (द्रष्टव्य-शाह, पूर्वोक्त, १९५५, चित्र ६०)।
अष्ट-मंगलों की पूजा जैन कर्मकाण्ड के अंतर्गत होती है। चौदहवीं शताब्दी के श्वेतांबर ग्रंथ प्राचार-दिनकर में एक-एक मंगल द्रव्य के प्रतीकार्थ की व्याख्या की गयी है। उसमें लिखा है कि कलश की पूजा का कारण यह है कि तीर्थंकर अपने परिवार में कलश के ही समान होते हैं । दर्पण का उद्देश्य है प्रात्मा के यथार्थ रूप का दर्शन । भद्रासन की पूजा इसलिए की जाती है कि उसे पुण्यात्मा भगवान के चरणों ने पवित्र किया है। वर्धमानक संपत्ति, कीर्ति, गुण आदि की समृद्धि का सूचक है। उसमें लिखा है कि तीर्थंकर के हृदय में जो केवल-ज्ञान का उदय हुआ वह उनके वक्षस्थल पर अंकित श्रीवत्स-लांछन के रूप में ही हुआ । इस ग्रंथ के अनुसार स्वस्तिक से स्वस्ति, शांति की अभिव्यक्ति होती है। नव-कोणीय रेखांकन के रूप में जो नंद्यावर्त प्रस्तुत किया जाता है उससे नव-निधियों की प्रतीति होती है। जो कामदेव के ध्वज में भी अंकित होता है ऐसा मत्स्य-युगल सूचित करता है कि कामदेव के विजेता 'जिन' अब पूजा की स्वीकृति के हेतू पधार गये हैं। स्पष्ट है कि ये व्याख्याएँ जैन मान्यताओं से अनुप्राणित हैं परंतु ये प्रतीक वे ही हैं जो प्राचीन भारत में कदाचित सभी संप्रदायों में समान रूप से मान्य रहे।
दिगंबर परंपरा में अष्ट-मंगलों की नामावलि यह है : (१) भुगार अर्थात् एक प्रकार का घट,
1 तथापि, यह स्मरणीय है कि इन आयागपटों की पूजा अष्ट-मंगलों की पूजा तक ही सीमित न थी। स्तूप, चैत्य
वृक्ष, धर्म-चक्र, जिन-मूर्ति, आर्यवती (कदाचित् महावीर की माता), मुनि कण्ह आदि महाविद्वान् प्राचार्य इत्यादि की पूजा भी उसकी सीमा में थी, जैसाकि उन आयाग-पटों से प्रकट है जिनपर ये मुख्य अंकन प्रस्तुत किये गये है। सब आयाग-पटों से मिलकर वे मुख्य सत्त्व निकाले जा सकते हैं जो कुषाणकालीन मथुरा की पूजा-पद्धति में
विद्यमान रहे होंगे. 2 न चित्रकल्पबुम 1, चित्र 82,59. 3 त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित का जॉनसन का अनुवाद, 1, चित्र 4. 4 प्राचार-दिनकर, पृ 197-98. 5 यह उल्लेखनीय है कि मथुरा के एक लगभग दूसरी शताब्दी ई० के लाल बलुआ पाषाण से निर्मित छत्र पर ये
पाठ मंगल-चिह्न उत्कीर्ण हैं : (1) नंदिपद (त्रिरत्न के अनुरूप), (2) मत्स्य-युग्म, (3) स्वस्तिक, (4) पुष्प-दाम, (5) पूर्ण-घट, (6) रल-पात्र, (7) श्रीवत्स और शंख-निषि. वासुदेव शरण अग्रवाल, 'ए न्यू स्टोन अंडलाज़ फ्रॉम मथुरा, जर्नल ऑफ़ द यू पी हिस्टारिकल सोसायटी, 20, 1947, पृ 65-67. प्रश्न व्याकरण सूत्र में छत्र के संबंध में जैन मान्यता और वर्णन के लिए द्रष्टव्य : शाह, ए फर्दर नोट प्रॉन स्टोन 'अंब लाज फ्रॉम मथुरा' पूर्वोक्त, 24.
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