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प्रध्याय 35 ]
मूर्तिशास्त्र क्षेत्रपालों आदि की मूर्तियाँ बनायी गयीं, किन्तु शीर्ष पर कहीं-कहीं चारों तीर्थंकर-मूर्तियों में से किसी एक के स्थान पर किसी गणधर या किसी प्राचार्य की मूर्ति भी बनायी गयी। इसी पद्धति का एक बृहत् उदाहरण राजस्थान में चित्तौड़ के जैन स्तंभ के रूप में विद्यमान है।।
यहाँ चतुर्मुख (चौमुख) जैन मंदिरों की अवधारणा भी उल्लेखनीय है जिनके गर्भालयों में चारों ओर एक-एक द्वार होता है और पूजा के लिए स्थापित मुख्य मूर्ति चतुर्मुख होती है, अर्थात् उसके चारों ओर एक-एक (आवश्यक नहीं कि वे भिन्न-भिन्न न हों) तीर्थंकर का अंकन होता है। इस प्रकार का एक बहुत आरंभिक प्रसिद्ध मंदिर बंगाल के पहाड़पुर में है जिसपर हिन्दू अंकन हैं। यह कहना कठिन है कि वह मंदिर मूलत: जैन था या नहीं, परंतु पहाड़पुर में प्राप्त हुई वर्ष १५६ (४७८ ई०) की वह तिथ्यंकित ताम्र-पट्टी उल्लेखनीय है जिसमें जैन पंच-स्तूप-निकाय का संदर्भ है । तथापि, भारत में अनेक जैन चौमुख मंदिर प्रसिद्ध हैं, जिनमें से राजस्थान में राणकपुर का त्रैलोक्यदीपक नामक चतुर्मुख प्रासाद अनुपम कृति है; एक और प्रसिद्ध कृति है आबू पर्वत पर दिलवाड़ा के मंदिर-समूह में खरतर-वसहि (लगभग पंद्रहवीं शती) नामक मंदिर ।।
लिखा जा चुका है कि मथुरा में चतुर्मुख मूर्तियों की स्थापना का प्रचलन था। राजगिर की सोनभण्डार गुफा में एक गुप्तोत्तर काल की पाषाण-निर्मित चौमुख मूर्ति है जिसके चारों ओर पृथक्पृथक तीर्थंकरों--ऋषभ, अजित, संभव और अभिनंदन के अंकन हैं। भारत कला भवन, वाराणसी की सारनाथ से प्राप्त प्राचीनतर पाषाण-निर्मित मूर्ति भी चौमुख है। समूचे भारत में अनेक जैन मंदिरों में इतिहास के विभिन्न युगों में स्थापित पाषाण और धातु की चौमुख मूर्तियाँ आज भी पूजी जाती हैं। इस अवधारणा का मध्यकाल में परिवर्धित रूप पुरातत्त्व संग्रहालय, ग्वालियर की एक मूर्ति (चित्र ३१० क) में द्रष्टव्य है ।
एक ऐसा युग भी आया, कदाचित् मध्यकाल में किसी समय, जब तीर्थंकरों की समहबद्ध मूर्तियों की पूजा का प्रचलन हुपा-चौबीस का समूह; भूत, वर्तमान और भविष्य के प्रारों या यूगों की एक-एक चौबीसी की संयुक्त बहत्तर का समूह (चित्र ३१० ख), (सूरत के एक दिगंबर जैन मंदिर में); विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध एक सौ सत्तर का; और लोक की रचना में उल्लिखित सहस्रकूट से संबद्ध एक हजार का (चित्र ३११ क)। इनमें से अंतिम को छोड़कर शेष सभी शिलाओं पर उद्धृत किये गये । अंतिम को, सुविधा के लिए, एक चौमुख की भाँति चारों ओर लघु मूर्तियों के उद्धृत द्वारा बनाया गया । बहत्तर या एक सौ सत्तर के समूहों को भी सुविधा की दृष्टि से चौमुख की भाँति चारों ओर प्रस्तुत किया गया। किन्तु जिनपर चौबीस के समूह को चारों ओर प्रस्तुत किया गया हो ऐसे
1 द्रष्टव्यः शाह, पूर्वोक्त, 1955, रेखाचित्र 56, देवगढ़ के मंदिर-12 की चहारदीवारी में स्थित एक मान-स्तंभ के
लिए; और वही, चित्र 82, चित्तौड़ के स्तंभ के लिए (द्वितीय खण्ड में चित्र 219 भी). 2 [पहाड़पुर, राणकपुर आदि के लिए इसी खण्ड में अध्याय 21 और 28 द्रष्टव्य. --संपादक.]
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