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जन सिद्धान्त ने ऐसी खोजों पर प्रकाश इसलिए नहीं डाला कि महर्षियों ने तो मुख्य रूप से मोक्ष प्राप्ति के साधन एवं मात्मा के विकास पर ही प्रकाश डाला है। ये सारे वर्तमान के बज्ञानिक भौतिकवादी खोजपूर्ण साधन यहीं पड़े रह जावेगे। इस वैज्ञानिक ज्ञान से आत्मा को सद्गति मिलने वाली नहीं है। वैसे सर्वज्ञ कथित वाणी से प्ररूपित इन जड़ पदार्थों का अवधिज्ञानी आदि ऋपियों ने एवं युतकेवलियों ने द्वादशांग श्रुतज्ञान से जानकर म्वरूप निरूपण अवश्य किया है।
वर्तमान में मानव भोग विलासों में समय को व्यर्थ गवां रहे हैं। धार्मिक अध्ययन में शून्य होने के कारण ही आज वास्तविकता से अनभिज हो रहे हैं। यही कारण है कि 'चन्द्र यात्रा' के बारे में तरह-तरह की चर्चाय हो रही हैं। जबकि हमारे जनाचार्यों ने लोक विभाग, त्रिलोकमार, तिलोयपण्णत्ति आदि महान ग्रन्थों में तीनों लोकों की सारी रचना तथा व्यवस्था के बारे में पूर्णतया बारीकी से स्पष्टीकरण किया है। लेकिन इस माथिक एवं भौतिक युग में किसी को इतना अवसर ही नहीं मिलता दिखाई देता जबकि वे अपनी निधि को देख सकें। पाज हम लोग दूसरों की खोज पर मुह ताकते रहते हैं।
इसी बात को ध्यान में रखकर जन साधारण के हितार्थ सौर्य मंडल के बारे में जैन आम्नायानुसार इसका ज्ञान कराने के लिए पू० विदुषी आर्यिका १०५ श्री ज्ञानमती माताजी ने लोगों के प्राग्रह पर सन् १९६६ के जयपुर, चातुर्मास के अन्तर्गत १५ दिन के लिए एक शिक्षण कक्षा चलाई थी, जिसमें स्त्री पुरुषों तथा बालकों ने बहुत ही रुचि पूर्वक भाग लेकर अध्ययन