Book Title: Jain Jatiyo ka Prachin Sachitra Itihas Author(s): Gyansundar Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala View full book textPage 6
________________ आचार्य हरिदत्तमूरि. वान ऋषभदेव व नेमिनाथ पावनाथ के नामोंका उल्लेख है (देखो वेदोंकी श्रुतियों पहला प्रकरण में ) वेदान्तियों ने भी जैनतीर्थकरोंको नमस्कार किया है राजा भरत-सागर दशरथ रामचंद्र श्रीकृष्ण कौरवपाण्डु यह सब महा पुरुष जैन ही थे जैन लोग ईश्वरको नहीं मानते यह कहना भी मिथ्या है जैसे ईश्वरका उच्चपद और श्रेष्टता जैनोंने मानी है वेती किसीने भी नहीं मानी है । अन्य लोगों में कितनेक तो ईश्वर कों जगत्का का मान ईश्वरपर अज्ञानता निर्दयताका कलंक लगाया है कितनकोंने सृष्टिको संहार और कितनेकोंने पुत्रीगम नादिके कलंक लगाया है जैन ईश्वरको कर्ता हर्ता नहीं मानते है पर सर्वज्ञ शुद्धात्मा अनंतज्ञान दर्शनमय मानते है निरंजन निराकार निर्विकार ज्योती स्वरूप सकल कर्म रहित ईश्वर पुनः पुनः अवतार धारण न करे इत्यादि वाद विवाद प्रश्नोत्तर होता रहा अन्तमे लोहिताचार्य को सद्ज्ञान प्राप्त होनेसे अपने १००० साधुओं के साथ आप आचार्य हरिदत्तसूरि के पास जैन दीक्षा धारण करली इस्के साथ सेकड़ों हजारों लोग जो पहलेसे यज्ञकर्मसे त्रासित हुवे सूरिजीका सदज्ञानसे प्रतिबोध पाके जैनधर्मको स्वीकार कर लीया । क्रमशः लोहितादि मुनि आचार्य हरिदत्तसूरि के चरणकमलों में रहते हुवे जैन सिद्धान्त के पारगामी हो गये तत्पश्चात् लोहित मुनिको गणिपदसे विभूषीत कर १००० मुनियों को साथ दे दक्षिण की तरफ विहार करवा दीया; कारण यहां भी पशुवधका बहुत प्रचार था आपश्री अहिंसा परमो धर्मका प्रचार में बड़े ही विद्वान और समर्थ भी थे. आचार्य हरिदत्तसूरि चिरकाल पृथ्वीमण्डल पर विहार कर अनेक आत्माओं का उद्धार कीया आपश्री अपना अन्तिम अवस्थाका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 66