Book Title: Jain Jatiyo ka Prachin Sachitra Itihas
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 35
________________ (३४) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. र्यका शिष्य जगलसे लकडीयों काट भारी बना बजारमे वेंचके उसका धान ला रोटी बनाके खाताथा इसी रीतसे उस शिष्यके सिरके बालतक उड गये । एकदा सूरिनीने शिष्यके सिरपर हाथ फेरा तो बाल नही पाये तब पुच्छने पर शिष्यने सब हाल सुनाया जब सूरिजीने एक रुइका मायावी साप बनाके राजाका पुत्रको कटाया और ओसवाल भनाया इत्यादि यह सब मनकल्पीत झूटी दान्तकथाओं है कारण अखण्डित चारित्र पालनेवाले पुर्वधर मुनियोंकों एसे विटम्बना करने की जरूरत क्या अगर मिक्षा न मीली तो फिर उस नगर में रहने का प्रयोजन ही क्या उस समय मामुली साधुभी एक शिष्यसे विहार नहीं करते थे तो रत्नप्रभाचार्य जेसे महान् पुरुष विकट धरतीमें एक शिष्य के साथ पधारे यह विलकुल असंभव है आगे भाट भोजको या यतियोंने रत्नप्रभसूरिका समय बीयेबाइसे २२२ का बतलाते है वह भी गलत है जिसका खुलासा हम फिर करेंगे दर असल वह समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका था और भिक्षा के लिये मुनियोंने तर वृद्धि करीथी। मुनियों के तपवृद्धि होते हुवेकों बहुत दिन हो गये तब उपाध्यया वीरधवळने सूरिनीसे अर्ज करी कि यहां के सब लोग देवि उपासक वाममागि मांस मदिर भक्षी है शुद्ध भिक्षा के अभाव मुनियोका निर्वाहा होना मुश्किल है ? इस पर आचार्यधीने कहा पसाही हो तो विहार करों. मुनिगण तो पहलासे ही तैयार हो रहे थे हुकम मिलतोही कम्मर बन्ध तय्यार हो गये। यह हाल वहां की अधिष्टायिका चमुंडा देविको ज्ञानद्वारा ज्ञात हुवा तब देविने सोचा कि मेरी सखी चक्रेश्वरी के भेजे हुवे महात्मा यहां पर आये है और यहांसे क्षुद्धा पिपास पिडित चले जायेंगें तो इसमें मेरी अच्छी न लागेगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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