Book Title: Jain Jatiyo ka Prachin Sachitra Itihas
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 54
________________ देबिको प्रतिबोध. (५३) अर्ज करी थी कि आप राजा प्रज्या को जैनी तो बनाते हो पर मेरे कडडका मरडका मत्त छोडाना ? पर आपने तो ठोक ही क्या इत्यादि देवि का वचना सुन सूरिजी महाराजने कहा देवि यह नलयेर तो तेरा कडडका है और गुलराव तेरा मरडका है इस को स्वीकार क्यो नहीं करती हा भो देवि पूर्व जन्म में तो तुमने अच्छा सुकृत कीया बहुत जीवों को जीतब दान दीया तब तुमे देव योनि मीली है पर यहां पर यह घोर हिंसा करवा के तुम किस योनि में जाना चाहाती हो हे देवि अच्छा मनुष्य भी कुतूहल के लिये निरर्थक हिंसा करना नहीं चाहाता है तो तुम ज्ञानवान् देवि होके फक्त कतूहल के मारो हजारो जीवो के प्राणो पर छुरा चलवाना क्यों पसंद कीया है इत्यादि उपदेश देने पर देवि उस बख्त तो शान्त हो गई पर गृहस्य वर्ग घबरा रहे थे सहिनीने उन पर वासक्षेप कर विसर्जन कोये पर देवि सर्वता शान्त नहीं हुई थी. अज्ञान के वस हो यह रहा देख रही थी कि कभी आचार्यश्री प्रमाद में हो तो में मेरा बदला लु । " एकदा छलं लब्ध्या देव्या आचार्यस्य कालवेलायां किंचिंत् स्वद्यायादि रहितस्य वामनैत्रे भूराधिष्टिता वेदना जातः " भाचार्यश्री सदैव अप्रमत्तपने ही रहते थे पर एका अकाल में स्वद्याय ध्यान रहित होने से देविने आपश्री के वामा नत्र में वेदना कर दी वह भी एसी कि कायर मनुष्य उसे सहन भी नहीं कर सके पर सूरिनी को तो उस की परवा ही नहीं थी उन्होने तो अपने दुष्ट कर्मो का देना चुकाने को दुकान ही खोल रखी थी तत्पश्चात् देवि अपना असली रूप कर आचार्य श्री के पास आ के कहने लगी कि भो आचार्य में चमुंडा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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