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जैन जातियाँका प्राचीन
(सचित्र)
इतिहास
मुनिश्री ज्ञानसुंदरजी.
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुप्प नं. ८६
श्री रत्नप्रभसूरीश्वरपादपद्मभ्यो नमः
अथ श्री जैन जाति महोदय.
तीसरा प्रकरण.
मत्वा इन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्र, पूनित पाद सदा सुखदाई। कैवल्यज्ञान दर्शन गुणधारक, तीर्थंकर जग जोति नगाई ।।
रणावंत कृपाके सागर, नलता नागको दीया बचाई। बामानंदन पावजिनेश्वर, धन्दत 'ज्ञान' सदा चितलाई
पालित पश्चाचार अखण्डित, नौविध ब्रह्मव्रतके धारी। करी निकन्दन चार कषायको, कब्जे कर पंच इन्द्रियप्यारी॥ पञ्च महाव्रत मेरु समाधर, सुमति पंच बडे उपकारी। गुप्ति तीन गोपि जिस गुरुको, प्रतिदिन बन्दित 'ज्ञान' आभारी।
संस्कृत दिव वाणि प्राकृत, रची पट्टावलि पूर्वधारी। तांको यह भाषान्तर हिन्दी, बाल जीवोंको है सुखकारी॥ सरल भाषाकों चाहत दुनियो, परिश्रम मेरा है ।हतचारी। ओसवंस उपकेश गच्छते, प्रगव्यो पुण्य 'ज्ञान' नयकारी ॥
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(२)
जैन जाति महोदय. तेवीसवा तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का पवित्र नीवन के विषयमें ॥ पार्श्वनाथ चरित्र नाम का एक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रसिद्ध हो चुका है पार्श्वनाथ भगवान् के दश भवों सहित वर्णन कल्प सूत्र में छप चुका है पार्श्वनाथ प्रभु का संक्षिप्त मीवनी इसी किताब का दूसरा प्रकरण में हम लिख आये है भगवान पार्श्वनाथ मोक्ष पधारने के बाद आपके शासन की शेष हिस्ट्री रह जाती है वह ही इस तीसरा प्रकरण में लिखी नाति है।
(१) भगवान पार्श्वनाथ के पहले पाट पर आचार्य शुभदत्त हुए-भगवान पार्श्वनाथ के मोक्ष पधार जानेपर चार प्रकारके देवों और चौसट इन्द्रोंने भगवान् का शोकयुक्त निर्वाण महोत्सव कीया तत्पश्चात् जैसे सूर्य के अस्त हो जाने से लोक में अन्धकार फेल जाता है इसी प्रकार धर्मनायक तीर्थकर भगवान् के मोक्ष पधार जाने पर लोकमे अज्ञान अन्धकार छा गया सकल संघ निरुत्साही हो गये. तदन्तर चतुर्विध संघने पार्श्वनाथ भगवान् के पद पर श्री शुभदत्त नामक गणधर' नो आठ गणधरों में सबसे बड़े थे, को निििचत किया, सूर्य के अस्त हो नाने पर भी चन्द्रका प्रकाश लोगों को हितकारी हुवा करता है उसी भांति भगवान् के मोक्ष पधार जाने पर आचार्य शुभदत्त सूरिजी चन्द्रवत् लौक में प्रकाश करने लगे, आचार्य श्री द्वादशांगी के पारगामि श्रुत केवली निन नहीं पर जिन तूल्य पदार्थों को प्रकाश करते हुवे और तप संयमादि आत्मबलसे कर्म शत्रुओं कों पराजय कर आपने कैवल्य ज्ञानदर्शन प्राप्त किया. फिर भूमण्डल पर विहार कर अनेक भव्य जीवोंका उद्धार किया
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आचार्य शुभदत.
( ३ )
आपभी के पवित्र जीवन के विषय में किसी पट्टावलिकारने विशेष वर्णन न करते हुए यह ही लिखा है कि आप अपनी अन्तिमवस्था में शासन का भार आचार्य हरिदत्त सूरि के सिर पर रख आपश्री सिद्धाचलजी तीर्थपर एक मास का अनसन पूर्वक चरम श्वासोश्वास और नाशमान शरीर का त्याग कर अनंत सुखमय मोक्ष मन्दिर मे पधार गये इति पार्श्वनाथ प्रभुके प्रथम पट पर हुवे आचार्य शुभदत्तसूरि ।
( २ ) आचार्य शुभदत्त सूरि मोक्ष पधार जाने पर सूर्य और चन्द्र इन दोनों का प्रकाश अस्त हो जानेसे श्री संघमे बहुत रंज हुवा तत्पश्चात् आचार्य हरिदत्तसूरि को संघ नायक निर्युक्त कर सकल संघ उन सूरिजी की आज्ञा को सिरोद्धारण करते हुवे आत्म कल्याण करने में तत्पर हुवे आचार्य श्री श्रुत समुद्र के पारगामी, वचन लब्धि, देशनामृत तुल्य, उपशान्त जीतेन्द्रिय यशस्वी परोपकार परायणादि अनेक गुण संयुक्त सूर्य चन्द्र के अभाव दीपक को परे उद्योत करते हुवे भूमण्डल में विहार करने लगे। दूसरी तरफ यज्ञहोम करनेवालों का भी पग पसारा विशेष रूप में होने लगा हजारो लाखो निरापराधी पशुओं का बलीदान से स्वर्ग बतलानेवालों की संख्या मे वृद्धि होने लगी परिव्राजक प्रव्रजित सन्यासी लोगौने इसके विरूद्ध में खडे हो यज्ञ में हजारो लाखों पशुओंका बलिदान करना धर्म बिरूद्ध निष्ठूर कर्म बतला रहे थे आचार्य हरिदत्तसूरि के भी हजारो मुनि भूमण्डल पर अहिंसा परमो धर्म का झंडा फरका रहे थे एक समय बिहार करते हुवे आचार्य श्री अपने ५०० मुनियों के परिवार से स्वस्तिनगरी के उद्यान में पधारे वहां का राजा अदीनशत्रु व नागरिक वडे ही आडम्बर से सूरिजी को वन्दन करने को
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( ४ )
जैन जाति महोदय. आये आचार्यश्रीने बडेही उच्चस्बर ओर मधुरध्वनि से धर्म देशना दी. श्रोताजनों पर धर्म का अच्छा असर हुवा। यथाशक्ति व्रत नियम किये तत्पश्चात् परिषदा विसर्जन हुई । निस समय आचार्य हरिदत्तसूरि स्वस्ति नगरी के उद्यान में विराजमान थे उसी समय परिव्रजक लोहिताचार्य भी अपने शिष्य समुदायकैसाथ स्वस्ति नगरीके बहार ठेरे हुवे थे दोनोंके उपा. सकोके आपुसमें धर्मबाद होने लगा. वहांतक कि वह चर्चा राजा अदिनशत्रुकी रानसभा में भी होने लगी. पहले जमाना के राजाओं को इन बातों का अच्छा शौख था. राना जैनधर्मोंपासक होने परभी किसी प्रकारका पक्षपात न करता हुवा न्यायपूर्वक एक सभा मुकरर कर ठीक टैमपर दोनों आचार्यों को आमन्त्रण किया. इसपर अपने अपने शिष्य समुदाय के परिवारसे दोनों आचार्य सभामें उपस्थित हुवे राजाने दोनो आचार्यों को वडा ही आदर सत्कार के साथ आसनपर वि. रानने की विनंति करी. आचार्य हरिदत्त सूरि के शिष्योंने भूमि प्रमार्जन कर एक कामलीका आसन बीचा दीया राजाकी आज्ञा ले सूरिजी विराजमान हो गये इधर लोहित्यार्य भी मृगछाला बीछा के बैठ गये तदन्तर राजाको मध्यस्थ स्थानपर रख दोनों आचार्यों के आपुस में धर्मचर्चा होने लगी विशेषता यह थी की सभाका होल चकारबद्ध भरजाने परभी शास्त्रार्थ सुनने के प्यासे लोग बडेही शान्तचित्तसे श्रवणकर रहे थे. लोहीताचार्य ने अपने धर्मकी प्राचीनता के बोरामे वेदोंका केइ प्रमाण दिआ और जैनधर्म के विषय में यह कहा कि जैनधर्म पार्श्वनाथजीसे चला है ईश्वरको मानने में इन्कार करते है। इसपर हरिदत्ताचार्य ने फरमाया कि जैनधर्म नूतन नहीं पर वेदोंसे भी प्राचीन है वेदोंमे भी जैनों के प्रथम तीर्थकर भगShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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आचार्य हरिदत्तमूरि. वान ऋषभदेव व नेमिनाथ पावनाथ के नामोंका उल्लेख है (देखो वेदोंकी श्रुतियों पहला प्रकरण में ) वेदान्तियों ने भी जैनतीर्थकरोंको नमस्कार किया है राजा भरत-सागर दशरथ रामचंद्र श्रीकृष्ण कौरवपाण्डु यह सब महा पुरुष जैन ही थे जैन लोग ईश्वरको नहीं मानते यह कहना भी मिथ्या है जैसे ईश्वरका उच्चपद और श्रेष्टता जैनोंने मानी है वेती किसीने भी नहीं मानी है । अन्य लोगों में कितनेक तो ईश्वर कों जगत्का का मान ईश्वरपर अज्ञानता निर्दयताका कलंक लगाया है कितनकोंने सृष्टिको संहार और कितनेकोंने पुत्रीगम नादिके कलंक लगाया है जैन ईश्वरको कर्ता हर्ता नहीं मानते है पर सर्वज्ञ शुद्धात्मा अनंतज्ञान दर्शनमय मानते है निरंजन निराकार निर्विकार ज्योती स्वरूप सकल कर्म रहित ईश्वर पुनः पुनः अवतार धारण न करे इत्यादि वाद विवाद प्रश्नोत्तर होता रहा अन्तमे लोहिताचार्य को सद्ज्ञान प्राप्त होनेसे अपने १००० साधुओं के साथ आप आचार्य हरिदत्तसूरि के पास जैन दीक्षा धारण करली इस्के साथ सेकड़ों हजारों लोग जो पहलेसे यज्ञकर्मसे त्रासित हुवे सूरिजीका सदज्ञानसे प्रतिबोध पाके जैनधर्मको स्वीकार कर लीया । क्रमशः लोहितादि मुनि आचार्य हरिदत्तसूरि के चरणकमलों में रहते हुवे जैन सिद्धान्त के पारगामी हो गये तत्पश्चात् लोहित मुनिको गणिपदसे विभूषीत कर १००० मुनियों को साथ दे दक्षिण की तरफ विहार करवा दीया; कारण यहां भी पशुवधका बहुत प्रचार था आपश्री अहिंसा परमो धर्मका प्रचार में बड़े ही विद्वान और समर्थ भी थे. आचार्य हरिदत्तसूरि चिरकाल पृथ्वीमण्डल पर विहार कर अनेक आत्माओं का उद्धार कीया आपश्री अपना अन्तिम अवस्थाका
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जैन जाति महोदय.
समय नजदीक जान अपने पदपर आर्य समुद्रसूरिको स्थापन कर आप २१ दिनका अनशन पूर्वक वैभारगिरके उपर समाधिसे माशमान शरीरका त्याग कर स्वर्ग सिधारे। इति दूसरापाट्ट
३ आचार्य हरिदत्तसूरिके पट आर्य समुद्रसूरि महा प्रभाविक विद्याओं और श्रुतज्ञानके समुद्रही थे आपके शासन कालमें भी यज्ञवादियों का प्रचार था हजारो लाखों निरापराधि पशुओंके कोमल कण्ठपर निर्दय दैत्य छुरा चलाने में और धर्मका नामसे मांस मदिराको आचरणामें ही दुनियों को जालमे फसा रहे थे आचार्यश्री के विशाल संख्यामें मुनि समुदाय पूर्व बंगाळ ऊडीसा पंजाब मुल्तानादि जिप्त २ देशमें बिहार करते थे उस २ देशमे अहिंसाका खुब प्रचार कर रहे थे इधर लोहितगणि दक्षिण करणाट तैलंग महाराष्ट्रियादि देशोंमे विहार कर अनेक राजा महाराजाओं कि राजसभामे उन पशुहिंसकों. का पराजय कर जैनधर्म का झंडा फरका रहेथे आपके उपासक मुनिगणकि संख्या कमीवन् ५००० तक हो गइ थी. दक्षिण में अन्योन्य मत्तके आचार्यों को देख दक्षिण जेनसंघ लोहित गणिको इसपद के योग्य ममज आचार्य आर्यममुद्रसूरि कि सम्मति मंगवाके अच्छा दिन शुभ मुहूर्त में लोहितगणि को आचार्य पहिसे भूषित किये, जिससे दक्षिण विहारी मुनियोकी लोहित साखा और उत्तर भरतमे विहार करनेवाले मुनियोंकी निर्ग्रन्थ समुदाय के नामसे ओलखाने लगी. दोनों श्रमण समुदायोंने हाथ में धर्मदंड लेकर उत्तरसे दक्षिणतक जैनधर्मका इस कदर प्रचार कर दिया कि घेदान्तियों का सूर्य अस्ताचल पर चलेजानेसे नाममात्र के रह गये थे.
आर्यसमुद्रसूरि का एक विदेशी नामका महा प्रभाषिक
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समुद्रसूरि.
( ७ )
अतिशय ज्ञानेंद्र मुनि ५०० मुनियों के साथ विहार करता अवंति ( उजैन ) नगरी के उद्यानमें पधारे बांका राजा मयसेन था अनंगसुन्दरी राणि तथा उसका करीबन १० वर्षका पुत्र केशीकुमारादि और नागरिक मुनिश्रीको वन्दन करनेको आये. मुनिजीने संसार तारक दुःख निवारक और परम वैराग्यमय देशना दी देशना श्रवणकर यथाशक्ति व्रत नियम कर परिषदा मुनिको वन्दन कर विसर्जन हुई पर राजकुमार केशीकुमर पुनः पुनः मुनिश्री के सन्मुख देखता वहांही बैठा रहा फीर प्रश्न किया कि हे करूणासिन्धु ! में जैसे जैसे आपके सामने देखता हुँ वैसे वैसे मेरेको अत्यन्त हर्ष-रोमांचित्त हो रहा है वैसा पूर्वमें कबी किसी कार्य में न हुवा था इतना ही नहीं पर आप पर मेरा इतना धर्म प्रेम हो गया है कि जिस्कों में जवानसे कहने में भी असमर्थ हूं ।
मुनिश्रीने अपना दिव्यज्ञान द्वारा कुमर का पूर्व भव देखके कहा कि हे राजकुमर । तुमने पूर्वभवमें इस जिनेन्द्र दीक्षा का पालन कीया है वास्ते तुमको मुनिवेष पर राग हो रहा है । कुमर ने कहा क्या भगवान् ! सच्चही मेरा जीवने पूर्वभव में जैन दीक्षा का सेवन कीया है ? इसपर मुनिने कहा कि हे राजकुमार । सुन इस भारत वर्ष के धनपुर नगरका पृथ्वीधर राजा की सौभाग्यदेविके सात पुत्रियों पर देवदत्त नामका कुमार हुवा था. वह बाल्यावस्था में ही गुणभूषणाचार्य पास दीक्षा ले चिरकाल दीक्षापाल अन्तमें सामाधिपूर्वक कालकर पंचधा ब्रह्मस्वर्ग में देव हुवा वहांसे चब कर तुं राजा का पुत्र देशी कुमार हुवा है यह सुन कुमर को उहापोह करतों ही मातिस्मरण ज्ञानोत्पन्न हुवा जिससे मुनिने कहा था वह आप प्रत्यक्ष ज्ञान के जरिये सब आबेहुब देखने लग गया बस फिर
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( ८ )
जैन जाति महोदय. क्या था! ज्ञानियों के लिये सांसारिक राजसंम्पदा सब काराघर सदृश ही है कुमर तो परम पैराग्य भाषको प्राप्त हो मुनिको वन्दन कर अपने मकानपर आया मातापितासे दीक्षा की रजा मांगी पर १० वर्षका बालक दीक्षामें क्या समजे एसा समज मातापिताने एक किस्म की हांसी समजली पर नब कुमरका मुखसे ज्ञानमय बैराग्य रस रंगमे रंगित शब्द सुना तब मातापिता खुद ही संसारको असार जान पडा पुत्रके राज दे आप अपने प्यारा पुत्र केशीकुमार को साथ ले विदेशी मुनिके पास बडे आडम्बर के साथ जैन दीक्षा धारण कर ली. नयसेन राजर्षि और अनंगसुन्दरी आर्यिका ज्ञान ध्यान तप संयमसे आत्म कल्यान कार्य में प्रवृतमान हुए। केशीकुमर श्रमण जातिस्मरण ज्ञानसे पूर्व पढा हुवा ज्ञानका अध्ययन करते ही तथा विशेष ज्ञानाभ्यास करता हुवा स्वल्प समयमें श्रुत समुद्र का पारगामी हो गया। आचार्य आर्यसमुद्रसूरि अपने जीवन कालमें शासन की अच्छी सेवा करी थी धर्म प्रचार और शिष्य समुदाय में भी वृद्धि करी थी अपनि अन्तिमात्रस्था जान कैशीश्रमण को अपने पद पर नियुक्तकर आपश्री सिद्धक्षेत्रपर सलेखनां करता हुवा १५ दिनोंका अनसन पूर्वक स्वर्गगमन कीया. इति तीसरा पाट.
(४) आचार्य आर्यसमुद्रसूरि के पट पर आर्यकेशीम. णाचार्य बालब्रह्मचारी अनेक विद्याओं के ज्ञाता देव देवियों से पूनित जपने निर्मल ज्ञानरूपी सूर्य प्रकाशसे भव्यों के मिथ्यास्वरुप अंधकार को नाश करते हुवे भूमण्डलपर विहार करने लगें इधर दक्षिण विहारी लोहिताचार्य के स्वर्गवास हो जाने के बाद मुनि धर्गमें शिथिलता वा आपसमे कूट पड जानेसे अन्य लोगोंका नौर बढ नाना स्वाभाविक बात है मतमतान्तरों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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केशीश्रमणाचार्य. के पावविषादमें आत्मशकियोंका दुरुपयोग होने लगा. यह कर्म और पशु हिंसको का फिर जौर पढने लगा धार्मिक और सामाजिक श्रृंखलनायेंमें भी परावर्तन होने जगा.
यह सब हाल उत्तर भरतमें रहे हुवे केशीश्रमणाचार्यने सुना तब दक्षिण भरतमें विहारकरनेवाले मुनियों को अपने पास बुलवा लिया अधपि कितनेक मुनि रह भी गये थे. दक्षिणविहारी मुनि उत्तरमें आने पर कुच्छ अरसा के बाद वहां भी बह ही हालत हुई कि जो दक्षिणमे थी। इधर आचार्यश्री घर की बिगडी सुधारने में लग रहे थे उधर पशुहिंसक • यक्षवादीयोंने अपना जोर को बढ़ाने में प्रयत्नशील बन यज्ञका प्रचार करने लगे. घरकी फूटका यह परिणाम हुवा कि एक पिहित मुनिका शिष्य जिस्का नाम बुद्ध कीर्ति था उसने समुदायसे अपमानीत हो जैन धर्मसे पतित हो अपना बौद्ध नामसे बोद्ध धर्म का प्रचार करना शरु किया । बुद्ध कीर्तिने अपने धर्म के नियम पसे सिधे और सरल रखे कि हरेक साधारण मनुष्य भी उसे पाल सके बन्धन तो वह किलो प्रकारका
१ जैन श्वेताम्बर आम्नाय के आचारांग सूत्र कि टीकामें बुद्ध धर्म का प्रवर्तक मुल पुरुष बुद्धकीर्ति पार्श्वनाथ तीर्थ में एक साधु था जिसने बोद्ध धर्म चलाया.
२ दिगम्बर आम्नायका दर्शनसार नामका ग्रन्थमे लिखा है कि पार्श्वनाथ के तीर्थ में पिहित मुनिका शिष्य बुद्धकीर्ति साधु जैन धर्म से पतित हो मांस मट्टि भाचारण करता हुवा अपना नामसे बोद्ध धर्म चलाया है. ___बोद्ध ग्रन्थोंमें लिखा है कि बुद्ध एक राजा शुद्धोदीत का पुत्र था वह तापसों के पास दीक्षा लीथी बोधि होनेके बाद अहिंसा धर्म का खुब प्रचार कीया था इसका समय भगवान महावीर के समकालिन माना जाता हे कुच्छ भी
हो. बुद्धने जैनोंसे अहिंसा धर्म की शिक्षा जरुर पाई थी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(१०)
जैन जाति महोदय. था ही नहीं यहां तक कि मरे हुवे जीवोंका मांस व मदिरा खाना पीना भी निषेध नहीं था. बुद्धने सबसे पहला यज्ञ कर्मके विरुद्ध में खडा हो उपदेश करना शरू कीया जिस्का फल यह हुषा की पहलेसे ही इस निष्ठुर कार्य से लोगों में त्राहि त्राहि मच रही थी जैन धर्म के नियम एसे सख्त थे कि वह संसार लुब्ध जीवोंको पालन करना मुश्किल था रुची होने पर भी वह नियम पालन करनेमे असमर्थ जनता एकदम बुद्ध के झंडे के निचे आ गई यहां तक की केइ राजा महाराजा भी यज्ञादि कर्मसे विरक्त हो बोद्ध धर्म को स्वीकार कर लीया. इधर बौद्धोंका जौर बढता देख आचार्य केशीश्रमणने अपना श्रमण संघकी एक विराट् सभा भर उनको सचोट उपदेश कर मापुसकी फूट को देशनिकाल कर जो शिथिलता फैली हुई थी उसे दूर कर अन्यान्य देशमें विहार करने की आज्ञा दी मुोनवर्ग में भी आचार्य श्रीके उपदेशका एसा प्रभाव हुवा कि यह अपने कर्तव्य पर कम्मर कस तैयार हो गये । आचार्यश्रीने निम्न लिखित आक्षा एं फरमाई। ५०० मुनियों के साथ वैकूटाचार्य करणाटक तैलंगादिकी तरफ ५०० मुनियोंके साथ कालिकापुत्राचार्य दक्षिण महाराष्ट्रिय
देशकी तरफ ५०० मुनियोंके साथ गर्गाचार्य सिन्धु-सौवीर देशकी तरफ ५०० मुनियोंके साथ जवाचार्य काशी कौशल देशके तरफ ५०० मुनियोंके साथ अन्नाचार्य अंगबंग देशकी तरफ ५०० मुनियोंके साथ काश्यपाचार्य संयुक्त प्रान्तकी तरफ ५०० शिवाचार्य अवंति देशकी तरफ इनके सिवाय थोडा थोडी संख्या भी अन्योअन्य प्रान्तों में
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केशीश्रमणाचार्य.
(११) मुनियोका विहार करवा के आप एक हजार मुनियों के साथ मागध देशमें विहार कर पशुबलि करनेवाले यज्ञ और मांसभक्षण करनेवाले बोद्धों के सामने खडे हो गये.
आपश्री के परम पुरुषार्थ का यह फल हुवा कि राजा चेटक-सतानिक दधिवाहन सिद्धार्थ-विजयसेन चन्द्रपाल अदिनशत्रु प्रसन्नजीत और राजा प्रदेशी आदि अनेक राजा महाराजाओं और लाखो मनुष्यों को पतित दशासे उद्धार कर पवित्र जैनधर्म के उपासक बना दीये थे.
आजकल इतिहास शोधखोल से पता मिलता है कि वह जमाना बडा हि विकट था आपुस के धर्म वाद के लिये स्थान स्थानपर मोरचा बन्धी हो रही थी। आत्मकल्यान करने कि जो आत्म शक्तियोंथी उनका दुरुपयोग वाद-विवाद में होता था अज्ञानताका का साम्राज्य था जनता में बड़ा भारी कोलाहल मच रहा था इत्यादि कुदरत एक एसा महा पुरुष की प्रतीक्षा कर रही थी कि जिसकी परमावश्यक्ता थी
इसी समय में जगदुद्धारक त्रीलोकी नाथ शान्तिका समुद्र चरमतीर्थकर भगवान महावीर प्रभुने अवतार धारण कीया संक्षिप्त में-क्षत्रीकुण्ड नगर का राजा सिद्धार्थ कि त्रिशलादे राणि की पवित्र रत्न कुक्षी में भगवान् महावीरने अवतार लीया। जन्म समय छप्पन दिगकुमारीकाओंने सूतिका कर्म किया सौधर्मादि चौसठ इन्द्रोंने सुमेरूगिरिपर भगवान का जन्म महोत्सव किया. भगवान् ३० वर्ष गृहवास में रहें एक पुत्री हुई वह नमालि क्षत्री कुमारको व्याही थी अन्त में गृहा वस्थामें एक वर्ष तक वर्षीदान दोया तत्पश्चात् इन्द्रनेरेन्द्रों के महोत्सवपूर्वक आपने दीक्षा धारण करी १२॥ वर्ष घोर तपShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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( १२ )
जैन जातिमहोदय.
श्चर्या करते हुवे देव मनुष्य तीर्थचादिके अनेकानेक उपसर्ग परिसहों को सहन कर पूर्व संचित दुष्ट कर्मोंका क्षय कर कैवल्यज्ञान दर्शन को प्राप्त कर लीया आप सर्वज्ञ वीतराग ईश्वर परमब्रह्म लोकालोक के चराचर पदार्थों का भाव एक ही समय मे देखने जानने लगे पूर्व तीर्थकरों के शासन के संघ कि शिथलता को दूर कर पहले के नियमोसे आप एसे सख्ताई के नियम रखे कि फिरसे श्रमणसंघ में शिथिलता का संचार होने न पावे भगवान् महावीरने बडे ही बुलंद अवाज से 'अहिंसा परमोधर्मः ' का प्रचार करना प्रारंभ कीया शान्ति रूपीं एसा जल बरसाया कि दग्ध भूमिरूप जनता में एकदम शान्ति पसर गई । धार्मिक सामाजिक नैतिक त्रुटि हुई श्रृंखला फिर अपने स्थानपर पहुंच गई आजके ऐतिहासिक विद्वानोंका मत है कि भगवान् महावीर के झंडा निचे राजा महाराजा और चालीश कोड जनता शान्तिरसका अस्वादन कर रही थी केशी भ्रमणादि पार्श्वनाथ संतानियें भी प्रायः सब भग बान् महावीरके शासन को स्वीकार कर अपना कल्यान करने लगे पर पार्श्वनाथ के संतानिये थे वह पार्श्वनाथ के नाम से ही विख्यात रहे । आजपर्यन्त भी पार्श्वनाथ भगवान् की संतान परम्परासे अविच्छन चली आ रही है । भगवान् महावीरका पवित्र जीवन के लिये पूर्वीय और पाश्चात्य विज्ञान सब एक ही अवाज से स्वीकार करते है कि महावीर भगवान् एक जगत् उद्धारक ऐतिहासिक महापुरुष हो गये है जगत् मे अहिंसा का झंडा महावीरने ही फरकाया है वेदान्तियों कि यज्ञप्रवृति पशुहिंसाने रोकी है ता एक महावीरने हो रोकी है जनताका कल्याण के लिये महावीरप्रभुका जीवन एक धेयरूप है इत्यादि महावीर भगवान् के जीवन विस्तार मुद्रित हो गया है बास्ते में मेरे
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आचार्य स्वयंप्रभसूरि.
उद्देश्यानुसार यहाँ महावीर भगवान् का संबन्ध यहीं समा. सकर आगे जैनजाति के बारामे ही मेरा लेख प्रारंभ करता हुँ
भगवान् कैशीश्रमणाचार्यने जैनधर्म को अच्छी तरक्की दी अन्तिमायस्थ में आप अपने पाट पर स्वयंप्रभ नामके मुनिकों स्थापनकर एक मासका अनशन पूर्वक सम्मेतशिखर गिरिपर स्वर्ग को प्रस्थान कीया इति पार्श्वनाथ भगवान् का चतुर्थ पाट हुवा।
(५ ) केशीश्रमणाचार्य के पट्ट उदयाचल पर सूर्य के समान प्रकाश करनेवाले आचार्य स्वयंप्रभसूरि हुए आपका जन्म विद्याधर कुलमें हुवाथा. आप अनेक विद्याओं के पारगामी थे स्वपरमत्त के शास्त्रों में निपुण थे आपके आज्ञावर्ति हजारों मुनि भूमण्डल पर विहार कर धर्म प्रचार के साथ जनताका उद्धार कर रहेथे इधर भगवान् वीरप्रभुकी सन्तान भी कम संख्यामें नहीं थी भगवान् महावीर का झंडेली उपदेशसे ब्राह्मजोका जोर और यज्ञकर्म प्रायः नष्ट हो गया था तथापि मरूस्थल जैसे रेतीले देशमें न तो जैन पहुँच सके थे और न बौद्ध भी यहां आस के थे वास्ते यहां बाममागियो का बडा भारी नौरशोर था. यज्ञ होम और भी वडे वडे अत्याचार हो रहे थे धर्म के नाम पर दुराचार व्यभिचार का भी पोषण हो रहा था कुण्डापन्थ का चलीयापंथ यह वाममार्गियों की शाखाएं थी देवीशक्ता के वह उपासक थे इस देशके राजा प्रजा प्रायः सब इसी पन्थ के उपासक थे उस समय मारवाड मे श्रीमालनामक नगर उन वाममार्गियोंका केन्द्रस्थान गीना जाता था.
आचार्य स्वयंप्रभसूरि के उपासक जैसे खेचर मूचर मनुष्य विद्याधर थे वैसे ही देवि देवता भी थे वह भी समय
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(१४)
जैन जाति महोदय. पाकर व्याख्यान श्रवण करने को आये करते थे-एक समय आचार्य श्री संघ के साथ सिद्धाचलजी की यात्राकर अबुंदा. चलकी यात्रा करनेको आये थे वहांपर व्यापार निमित्त आये हुवे श्रीमालनगर के कितनेक शेठ शाहुकार सूरिजी की अहिंसामय दशना श्रवण कर विनंति करी कि हे भगवान् । हमारे वहां तो प्रत्येक वर्ष में हनारो लाखो पशुओंका यज्ञमें बलिदान हो रहा है और उसमें ही जनता की शान्ति और धर्म माना जाता है आज आपका उपदेश श्रवण करनेसे तो यह ज्ञात हुवा है कि यह एक नरकका ही द्वार है अगर आप जैसे परोपकारी महात्माओंका पधारना हमारे जैसे क्षेत्रमें हो तो वहां की भद्रिक जनता आप के उपदेशका अवश्य लाभ उठावे इत्यादि विनंति करनेपर सूरिजीने उसे सहर्ष स्वीकार कर ली जैसे चितसारथी की विनंति को कैशीश्रमणने स्वीकार करी थी। समय पाके सूरिजी क्रमशः विहार कर श्रीमालनगर के उद्यान में पधार गये जिन्होंने अर्बुदाचल पर विनंति करी थी वह सजन अपने मित्रोंके साथ सूरिजी की सेवा उपासना करनेमे तत्पर हो सब तरह की अनुकूलता करदी उसी दिनोंमें श्रीमालनगरमें एक अश्वमेघ नामका यज्ञ की तयारी हो रही थी देशविदेश के हजारों ब्राह्मणाभास एकत्र हुवे इधर हजारों लाखो निरापराधि पशुओंको एकत्र कीये है एक वडा भारी यज्ञ मण्डप रचा गया था घर घरमें बकारा भैंसा बन्धा हुवा है कि उनका यज्ञमें बलिदान कर शान्ति मनाचेंगे इत्यादि । इधर सूरिनी के शिष्य नगरमें भिक्षा को गये नगरका हाल देख वापिस आ गये। सूरिजी को अर्ज करी कि हे भगवान् ! यह नगर साधुओं को भिक्षा लेने लायक नहीं है सब हाल सुनाया सूरिजी अपने कितनेक
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श्रीमाल-नगरसूरिजी.
(१५) विद्वान शिष्यों को साथ ले सिधे हो रान सभामें गये जहां पर यस सम्बंधि सब तैयारीयां और सलावों हो रही और बडे बढे झटाधारी सिरपर त्रिपुंडू भस्म लगाये हुवे गलेमें जीनौउके तागे पडे हुवे मांस लुब्धक ब्राह्मणाभास बेठे थे आचार्यश्रीका अतिशय तप तेन इतना तो प्रभावशाली था कि सूरिजीका आते हुवे देखते ही राजा जयसेन आसनसे उठ खडा हुवा कुच्छ सामने आके नमस्कार किया सरिजीने “घर्म लाम" दीया उसपर वहां बैठे हुवे ब्राह्मण लोग हंसने लगे. राजाने पहिले कभी धर्मलाभ शब्द कानोंसे सुनाही नहीं था वास्ते सूरिजी से पूच्छा कि हे प्रभो ! यह धर्मलाभ क्या वस्तु है क्या आप आशीर्वाद नहीं देते हो जैसे हमारे गुरु ब्राह्मण लोग दीया करते है । इसपर सूरिजीने कहा:
हे राजन् कितनेक लोग दीर्घायुष्य ( चिरंजीवो ) का आशीर्वाद देते है पर दीर्घायुष्य नरकमें भी होते है कितनेक बहु पुत्र का आशीर्वाद देते है बह कुकर कुर्कटादिके भी बहु पुत्र होते है परं जैनमुनियों का धर्मलाभ तुमारा सर्व सुख अर्थात् इस परलोकमें तुमारा कल्याण के लिये है यह विद्वत्तामय शब्द सुन राजाको अतिशय आनंद हुवा रानाने सूरीजीका आदर सत्कार कर आसनपर विरानने कि अर्ज करी सूरिजी अपनी काम्बली विचाके घिराज गये. उस समय के राजा लोगों को धर्म श्रवण करने का प्रेम था. राजाने नम्रता पूर्वक सूरिजीसे अर्ज करो कि हे भगवान् ! धर्मका क्या लक्षण है किस धर्म से जीव जन्म मरण के दुःखोसे निवृति पाता है ? सूरिजोने समय पाके कहा कि:
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(१६)
जैन जाति महोदय. अहिंसा सर्व जीवेषु, तत्त्वज्ञः परिभाषितम् । इदं हि मूल धर्मस्य, शेषस्तस्यैव विस्तरम् ॥ १॥
हे नरेश ! इस आरापार संसार के अन्दर जीतने तववेत्ता अवतारिक पुरुष हो गये है उन सबोंने धर्मका लक्षण " अहिंसा परमो धर्मः " बतलाया है शेष सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य निस्पृहीता आदि उस मूलकी शाखा प्रतिशाखारुप विस्तार है फिर भी महाभारतमें श्री कृष्णचन्द्रने भी युधिष्ठर से कहा है कि:
यो दद्यात् कांचनं मेरुः कृत्स्नां चैव वसुंधराः । एकस्य जीवितं दद्यात् न च तुल्य युधिष्ठिर ॥ हे धराधिप ! एक जीवके निषित दान के तुल्य कांचनका मेरु और संपूर्ण पृथ्वीका दान भी नहीं आसक्ता है। हे राजन् ! जैसा अपना निवित अपने को प्रीय है वैसे ही सब नीव अपने जिवित कों प्रीय समजते है पर मांस लोलुप कितने ही अज्ञानी पापात्माओंने बिचारे निरपराधि पशुओंका बलिदान देनेमे भी धर्ममान दुनियाको नरक के रहस्ते पर पहुंचा देनेका पाखण्ड मचा रखा है यद्यपि कितनेक देशमे तो सत्य वक्ताओंके प्रभावशालि उपदेशसे दुनियोंमें ज्ञानका प्रकाश होनेसे यह निष्ठूर कर्म नष्ट हो गया है पर केइ केइ देशोमें अज्ञात लोग इस कुप्रथाके कीचडमे फैसे पडे है, यह सुनते ही वह निर्दय दैत्य मांस लुपी यज्ञाध्यक्षक बोल उठे कि महाराज ! यह जैन लोग नास्तिक है वेद और ईश्वर को नहीं मानते है दया दया पुकार के सनातन यज्ञ धर्मका निषेध करते फोरते है इनको क्या खबर है कि वेदोमे यज्ञ करना महान् धर्म और दुनियोंकी शान्ति बतलाइ है । देखिये शास्त्रोमें क्या कहा है ? . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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आचार्य स्वयंप्रभसूरि.
( १७ )
यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयं भुधाः । यज्ञस्य भुत्ये सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ भावार्थ - ईश्वरने यज्ञ के लिये ही सृष्टिमें पशुओ को पैदा कीया है जो यज्ञ के अन्दर पशुओ कि बलि दी जाति है वह सब पशु योनिका दुःखोसे मुक्त हो सिधे ही स्वर्गमे चले जाते है और यज्ञ करनेसे राजा प्रज्ञामे शान्ति रहती है.
सूरिजीने कहा अरे मिथ्यावादीयों तुम स्वल्पसा स्वार्थ ( मांस भक्षण ) के लिये दुनियों को मिथ्या उपदेश दे दुर्गति के पात्र क्यों बनते हो अगर यज्ञमे बलिदान करनेसे ही स्वर्ग जाते है तो
" निहतस्य पशोर्यज्ञे । स्वर्ग प्राप्तिर्यदीष्य ते ।
स्वपिता यजमानेन । किन्तु तस्मान्न हन्यते ॥ "
भावार्थ - अगर स्वर्ग मे पहुंचाने के हेतु हि पशुओंको यज्ञमें मारते हो तो तुमारे पिता बन्धु पुत्र स्रिको स्वर्ग क्यो नहीं पहुंचाते हों अथवा यजमान को बलि के जरिये स्वर्ग क्यों नहीं भेजते हो अरे पाखण्डियों अगर एसे ही स्वर्ग मीलती है तो फोर क्या तुमको स्वर्ग के सुख प्रीय नहीं है देखिये शास्त्र क्या कहता है.
“ यूपं कत्वा पशु हत्वा । कृत्वा रूधिर कर्दमम् । यद्येव गम्यते स्वर्गे । नरके केन गम्यते ॥ "
* विचारा पशु उन निर्दय दैत्यों प्रति पुकार करते है कि " नाहं स्वर्ग पलोपभोग तुष्टितो नाभ्यार्थि तस्त्वंकाया, संतुष्ठ स्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्त तत्र ॥ स्वर्ग यान्ति यदत्वा विनिहिता यज्ञे श्रयं प्राणिनो । यज्ञं किं न करोषि मातृषिभिः पुत्रैस्तथा बान्धवै ॥
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(१८)
जैन जातिमहोदय. प्र-तीसरा. अगर पशुओ के मारनेसे रुधिरका कर्दम करनेसे ही स्वर्ग को चला जावेगा तब फिर नरक कौन जावेगा । हे राजन् एसा मिथ्या उपदेश देनेवाले गुरु और दयाहिना धर्म को दूरसे ही त्याग देना चाहिये कहा है की:
" त्यजद्धमै दयाहीनं क्रियाहीनं गुरु स्त्यजेत् " हे राजन् ! आप पवित्र क्षत्री कुलमें उत्पन्न हुवे है पर. अत्रि धर्मसे अभी अज्ञात है देखिये क्षत्रीयोका क्या धर्म है
" वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते, प्राणान्ते तृण भक्षणम् ।
तृणाहारा सदैवैते हन्यन्ते पशवाकथम् ॥ " भावार्थ कट्टर शत्रु प्राणान्त समय मुहमे तृण लेने पर क्षत्री उसको छोड देते है तो सदैव तृण भक्षण करनेवाले निरपराधि पशुओको मारना क्या आप जेसोको उचित है आपको पृथ्वीपर जनता न्यायाधिश मानते है तो एसे अबोले जानवारो पर आप के राजत्व कालमे एसा अन्याय होना क्या उचित है अर्थात् एसा हिंसामय मिथ्या पंथका त्यागकर इन पशुओंको जीवितदान दे इन गरीब अनाथ जीवोंकी आशीर्वाद लो और अनंत पुन्योपार्जन करो यह धर्म आप के इस लोक परलोकमे हित सुख और कल्याण का कारण होगा । हिंसा धर्मि उन यज्ञ कर्म करनेवालोने हिंसाकी पुष्टिमे बहुत दलिलों करी परंतु सूरिजीने शास्त्र या युक्तियो द्वारा उन क्रुतर्को का एसा प्रतिकार 'किया कि जिस्को श्रवणकर राजा और राजसभा तथा नागरिक लोगोको उन निष्ठुर यज्ञपर घृणा आने लगी और आचार्यश्री के फरमाये हुवे सत्य धर्म की रुची बढ गई राजा जयसेनने एकदम हुकम दे दीया कि सब पशुओंको छोडदो यज्ञ मण्डप को तोड फोड डालों और मेरा राजमें यह हुकम जाहिर
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सूरिजी और श्रीमाल. करदो कि कोई भी शक्स कीसी प्राणिको मारेगा उसे प्राणि के बदले अपना प्राण देना पडेगा. राजा अहिंमा भगवती का परमोपासक बन गया । फिर आचार्य बीने जैनधर्म का स्वरुप मुनि या श्रावक धर्म का वर्णन कर विस्तारपूर्वक सुनाया फल यह हुवा की वहांपर ९०००० घरों वालोने जैन धर्म को स्वीकार कर आचार्यश्री के चरणोपासक बन गये. आगे चलकर इस श्रीमालनगर के जैन लोग अन्योन्य नगरमें निवास कीया तब नगर का नामसे इन जैनो की श्रीमाल जाति प्रसिद्ध हुई*
श्रीमालनगरके लोगोंने सुरिजीसे अर्ज करी कि हे करुणासिन्धु । आप के यहाँ पधारनेसे हजारो लाखो पशुओं को अभयदान मीला और क्रूर कर्मरूपि मिथ्यामत्त सेवन कर नरकमे जाने वाले जीवो को सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई स्वर्ग मोक्ष का रहस्ता मीला अर्हन्त धर्म की बडी भारी प्रभावना हुई आप का परमोपकार का बदला इस भवमें तो क्या पर भवो भवमें देना हमारे लिये अशक्य है आपकी सेवा उपासना क्षणभर भी छोडनी नहीं चाहते है तधपि एक अरज करना हम बहुत जरूरी समजते है वह यह है की आवु के पास पद्मावती नामकी नगरी है वहां का राजा पद्मसेनने भी देवी के उपद्रब को शान्ति करने के हेतु अश्वमेघ यज्ञ का प्रारंभ कीया है कल पूर्णिमा का वह यज्ञ है अगर यहां पर आप श्रीमानों के पधारना हो जाय तो जैसा यहां लाभ हुघा है वैसा ही वहां भी उपकार है । सुरिनीने इस वात को सहर्ष स्वीकार करलि और संघ को कह दीया की हम कलशुभे ही पद्मावती पहुंच जावेंगे. गृहस्थ लोगोंने
* देखो नोट नम्बर १.
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(२०) जैन जाति महोदय. प्र- तीसरा. शीघ्रगामनी शांडणी की सवारी कर पद्मावती की तरफ रवाना हो गये सूरिजी महाराज सवेरे अपनि मुनि क्रिया से निवृति पाते ही विद्याबल से एक मुहुर्तमात्रमें पद्मावती पहुंच गये सिधे ही राजसभा में गये इतने में श्रीमाल नगर के श्राद्धवर्ग भी वहां पहुंच गये श्रीमाल की बात सब नगर में फेल गई-रान सभा चिकारबद्ध भरा गई सूरिजीने तो वह ही ' अहिंसा परमो धर्म:' पर विवेचन कर व्याख्यान दीया इस पर ब्राह्मणभासोने कहा महात्माजी यहाँ श्रीमाल नगर नहीं है कि आप का उपदेश श्रवण कर स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति वाला यज्ञ करना छोड दे ? सूरिजीने कहा महानुभावों न तो में श्रीमाल नगरसे पोट बन्ध लाया हुं न मेरे को यहांसे कुच्छ ले नाना है में तो रहस्ता भुला हुवा को सद् रहस्ता बतला रहा हुं और सदुपदेशद्वारा जनताका कल्याण करना मेरा कर्तव्य समज्ञता हुं जैसे की
" तुष्यन्ति भौजनैविप्राः मयूर घन गर्जितः ।
साधवः पर कल्याणः खल पर विपत्ति भिः ॥" सूरिजीने भाव यज्ञ का व्याख्यान करते हुवे कहा कि" सत्य यूपं तपो ह्यग्निः कर्माणा. समिद्योमम् ।
अहिंसामहुति दद्या. देव यज्ञ सतांमतः ॥ ". सत्य का यूप तप की अग्नि कर्मा की समाधी ( लकडीयों) और अहिंसा रूपी आहुति से आत्मा कि साथ चिरकाल से कर्म लगा हुवा है उन को होम कर आत्मा को पवित्र बनाना विनों का धर्म बितलाया है इस यज्ञ से जीव स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। हे विनों तुम पशु हिंसा रूप मिथ्या यज्ञ कर खुद रौद्र नरक में जाने का प्रबन्ध करते हो
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सूरिजी और पद्मावती.
(२१) और तुमारे आश्रित रहे हुवे बिचारे भद्रिक नीवो को भी साथ ले जाने की कोशीस करते हो अगर तुम अपना भला चाहाते हो तो तत्वज्ञ पुरुषों के फरमाये हुवे शुद्ध पवित्र धर्म का सरण लो कि निस से तुमारा कल्याण हो! इस पर ब्राह्मणोने पुच्छा को आपके तत्वज्ञ पुरुषोंने कोनसा रहस्ता बतलाया है ? सूरिजीने कहा
" देवत्व धीजिनेष्वधा मुमुक्षुषु गुरुत्वधी
धर्म धीराहता धर्म: तत्स्यात्सम्यक्त्वदर्शनम् " इत्यादि उपदेश के अन्त में राजादि ४५००० घरों को जैन धर्म का स्वीकार कर हजारों लाखो पशुओ को अभयदान दीलाया. राजा के पूर्वावस्था में गुरु प्रग्वट ब्राह्मण थे उनने कहा की हमारा भी कुच्छ नाम तो रखना चाहिए कि हम आप के उपदेश से जैन धर्म को स्वीकार कीया है इस पर सूरिजीने उन सब की प्रग्वट जाति स्थापन करी आगे चलकर उसी जाति का नाम " पोरवाड" हुवा है श्रीमाल नगर
और पद्मावती नगरी के आसपास फिर हजारो घरों को प्रतिबोध दे जैन बना के उन पूर्व जातियों में मीलवाते गये वास्ते यह नातियों बहुत विस्तृत्व संख्या में हो गई । आपत्री के उपदेश से श्रीमाल नगर में श्री ऋषभदेव का मन्दिर पद्मावती नगरी में श्री शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर तथा उस प्रान्त में और भी बहुत से मन्दिरों की प्रतिष्टा आपके कर कमलो से हुई श्रीमाल नगर से यों कहो तो उस प्रान्त से एक सिद्धाचलजी का बड़ा भारी संघ निकाला था आबू के जीर्ण मन्दिरो का जीर्णोद्धार भी इसी संघने करवाया इत्यादि आपश्री के उपदेश से अनेक धर्म कार्य हुवे ।
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( २२ ) जन जाति महोदय. प्र-तीसरा.
आचार्य स्वयंप्रभसूरि के पास अनेक देव देवियों व्या. ख्यान श्रवण करने को आये करते थे एक समय कि जिक्र है कि श्री चक्रेश्वरी आंबिका पद्मावति और सिद्धायिका देवियों सूरिजी का व्याख्यान सुन रही थी उस समय आकाश मागै रत्नचुड विद्याधर अपने सकुटम्ब नंदिश्वर द्विपकी यात्रा कर सिद्धाचलजी की यात्रा करने को जाते हुवे का वैमान आचार्य स्वयंप्रभसूरि से उपर हो के जा रहा था वह सूरिजी के सिर पर आता ही रूक गया रत्नचूड विद्याधर नायकने सोचा की मेरा विमान को रोकनेवाला कोन है उपयोग लगाने से ज्ञात हुवा कि में जंगम तीर्थ की आशातना करी यह बुरा किया झट वैमान से उत्तर निचे आ सूरिजी को वन्दन नमस्कार कर अपना अपराध की माफी मागी सूरिनीने धर्मलाभ दीया और अज्ञातपणे हुवा अपराध की माफी दी तत्पश्चात् रत्नचूड सपरिवार सूरिजीका व्याख्यान श्रवण करने को बेठ गया आचार्यश्रीने वैराग्यमय देशना दि संसारकी असारता मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री प्राप्ती की दुर्लभता बतलाई इत्यादि विद्याधर नायक के कोमल हृदय पर उपदेश का असर इस कदर का हुवा कि वह संसार त्याग सूरिजी महाराज के पास दीक्षा लेने को तय्यार हो गया परंतु एक प्रश्न दीलमें उत्पन्न हुवा वह झट खडा हो सूरिजीसे कहने लगा कि
" सुगुरु मम विज्ञापयति मम परम्परागत श्रीपार्श्वनाथजिनस्य प्रतिमास्ति, तस्यवन्दनो मम नियमोऽस्ति, सारावणलंकेश्वरस्य चैत्यालय अभवत्. यावत् रामेण लंका विध्वंस्मिता तावद् मदीया पूर्वजेन चन्द्रचूड़ नरनाथेन वैताढ्य आनीता
साप्रतिमा मम पार्शस्ति तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
रकी असारखा गया आचार्यभार सरिजीका :
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रत्नचुड विद्याधर.
(२३) भावार्थ-जिस समय रामचंद्रजी लंकाका विध्वंस किया था उस समय हमारे पूर्वज चन्द्रचुड विद्याधरोका नायक भी साथमें था अन्योन्य पदार्थों के साथ रावणके चैत्यालयसे लीलापन्नाकी पार्श्वनाथ प्रतिमा वैताट्यगिरिपर ले आये थे वह क्रमशः आज मेरे पास है और मुझे एसा अटल नियम है कि में उस प्रतिमाका दर्शन सेवा कीयों वगर अन्न जल नहीं लेता हुँ मेरी इच्छा है कि भगवान की प्रतिमा साथमे रख दीक्षा ले भावपूजा करता हुवा मेरा पूर्व नियमको अखण्डितपने रखु । आचार्यश्रीने अपना श्रुतज्ञानद्वारा भविष्यका लाभा. लाभपर विचार कर फरमाया कि जहां सुखम् " इसपर रत्नचुड विद्याधरोका राजा बडा भारो हर्ष मनाता हुँवा अपने बैमानवासी पांचसो विद्याधरो के साथ दीक्षा लेनेको तय्यार हो गये.
" गुरुणा लाभं ज्ञात्वा तस्मै दीक्षा दत्त्वा" शेष विद्याधर दीक्षाका अनुमोदन करते हुवे श्री शचुनयादि तीर्थों की यात्रा कर वैताट्य गिरिपर जाके सब समा. चार कहा तत्पश्चात् रत्नचुडराजा के पुत्र कनकचुड को रान गादी बेठाया और वह सहकुटम्ब आचार्यश्री को वन्दन करनेको आये रत्नचुड मुनिका दर्शनकर पहला तो उपालंभ दीये बाद चारित्र का अनुमोदन कर देशना सुन धन्दन नमस्कार कर विसर्जन हुवे । रत्नचुड मुनि क्रमशः गुरू महाराज का विनय सेवाभक्ति करते हुवे "क्रमेण द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वी बभूवः " कहने कि आवश्यक्ता नहीं है पहला तो आपका जन्म ही विद्याधर वंशमे दूसरा आप विद्याधरो के राजा तीसरा विधानिधि गुरुके चरणार्षिद की सेवा कि फिर कभी कीस
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(२४)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. वात की आपश्री स्वल्प समयमे द्वादशांगी चौदापूर्वदि सर्वागम और अनेक विद्या के पारगामि हो गये वैसे ही धैर्य गांभिर्य शौर्य तर्कवितर्क स्याद्वादादि अनेक गुणोमें निपुण होगये. इधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि शासनान्नति शासन सेवा कर अ. नेक भव्योंका उद्धार करते हुवे अपनि अन्तिमावस्था नान. रत्नचुडमुनिको योग्य जान. "गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद्वीरजिनेश्वरात् द्वपंचाशत वर्षे (५२) आचार्यपद स्थापिताः पंचशत साधुसह धरां विचरन्ति"
भगवान् वीरप्रभुके निर्वाणात् ५२ वर्षे रत्नचुडमुनिको आचार्यपदपर स्थापनकर ५०० मुनियोंके साथ भूमण्डलपर विहार करने की आचार्य स्वयंप्रभसूरिने आज्ञा दी. अन्य हजारों मुनि आचार्य रत्नप्रभरि की आज्ञासे अन्योन्य प्रान्तोंमे विहार करने लगे. आप सलेखना करते हुवे अन्तमे श्री सिद्धगिरिपर एक मासका अनसन कर स्वर्गमे अवतीर्ण हुवे इति पार्श्वनाथ भगावन् का पंचवापट्ट स्वयंप्रभसूरि हुवे । __आपश्रीका शासन में भगवान महावीर-गौतम-सौधर्म और जम्बुस्वामिका मोक्ष श्रीमाल पोरवाड जातियों कि स्था. पना और अनेक राजा महाराजाओ को धर्मबोध लाखो पशुओको जीवतदान और यज्ञमें हजारों पशुओका बलिदानरूप मिथ्यारूढियो का जडामूलसे नष्ट करदेना इत्यादि बहुत धर्म व देशोन्नति हुईथी.
(६) आचार्य स्वयंप्रभसूरि के पट्ट प्रभाकर मिथ्यात्वान्धकार को नाश करने मे सूर्यसदृश आचार्य रत्नप्रभसूरि (रत्नचुड) हुवे इधर नम्बुस्वामिके पट्टपर प्रभवस्वामि भी महा प्रभाषिक
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भाचार्य रत्नप्रभसूरि.
( २५) हुवे दोनो आचार्या की आज्ञावृति हजारो मुनियों पृथ्वीमण्डल पर विहारकर जैनधर्मका खुब प्रचार कर रहेथे यज्ञबादियो का जौर बहुत हट गया था पर बौद्धोका प्रचार आगे बढ़ रहाथा के राजाओने भी बौधधर्म स्वीकार करलीया था तद्यपि जैन ननताकी संख्या सबसे विशाल थी. इसका कारण जैनमुनियो कि विशाल संख्या और प्रायः सब देशोमे उनका विहार था. दूसरा जैनोका तत्त्वज्ञान और आचार व्यवहार सबसे उच्च कोटीका था जैन और बौद्धोका यज्ञनिषेध के विषय उपदेश मीलता जुलताही था वेदान्तिक प्रायः लुप्तसा हो गये थे. जैन और बौद्धोके वाद विवाद भी हुषा करता था.
आचार्य रत्नप्रभसूरि एकदा सिद्धगिरि की यात्रा कर संध के साथ आर्बुदाचल की बात्रा करी वहांपर रात्रिमें चक्रेश्वरी देवीने सूरिजीको विनंति करीकी हे दयानिधि ? आपके पूर्वजोने मरूभूमि मे विहार कर अनेक भव्योका कल्याण कर असंख्यात पशुओंकी बलिरूपी 'यज्ञ' जैसे मिथ्यात्व को समूलसे नष्ट कर दीया पर भवितव्यता वसात् वह श्रीमालनगरसे आगे नहीं बड सके वास्ते अर्ज है कि आप जैसे समर्थ महात्मा उधर पधारे तो बहुत लाभ होगा ? सूरिनीने देविकी विनंति को स्वीकार कर कहा की ठीक है मुनियों को तो जहां लाभ हो वहांही विहार करना चाहिये इत्यादि सन्मानित वचनोसे देवीको संतुष्ट कर आप अपने ५०० मुनियों के साथ मरूमूमिकी तरफ विहार किया।
उपदेशपट्टन (हालमे जिसे ओशीया कहते है) की स्थापना-इधर श्रीमालनगरका राजा नयसेन जैनधर्मका पालन करता हुवा अनेक पुन्य कार्य कीया पट्टावलि नम्बर ३ मे
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( २६ )
जैन जाति महोदय. प्र - तीसरा.
लिखा है कि जयसेनराजाने अपने जीवन मे ३०० नयामन्दिर ६४ वार तीर्थंका संघ निकाला और कुँवे तलाव वावडीयों वगरह कराई विशेष आपका लक्ष स्वाधर्मियों की तरफ था जयसेनराजा के दो राणियों थी बडी का मीमसेन छोटी का चन्द्रसेन जिसमे भीमसेन तो अपनि मातके गुरु ब्राह्मणों के परिचय से शिवलिंगोपासकथा और चन्द्रसेन परम जैनोपासक था. दोनो भाइयों में कभी कभी धर्मबाद हुवा करता था. कभी कभी तो वह धर्मवाद इतना जोर पकड़ लेता था की एक दूसरा का अपमान करने में भी पीच्छा नहीं हटते. थे ?
यह हाल राजा जयसेन तक पहुंचने पर राजाको बडा भारी रंज हुवा भविष्य के लिये राजा विचार में पडगया कि भीमसेन बडा है पर इसको राज देदीया जावे तो यह धम्मन्धिताके मारा और ब्राह्मणोकी पक्षपातमे पड जैन धर्म्म ओर जैनोपासकोका अवश्य अपमान करेंगा ? अगर चंद्रसेनकों राज देदीया नायतो राजमे अवश्य विग्रह पैदा होगा इस विचारसागरमें गोताखाता हुवा राजाको एक भी रहस्ता नहीं मीला पर काल तो अपना कार्य कीया ही करता है राजाकी चित्तवृतिको देख एक दिन चन्द्रसेनने पुच्छा कि पिताजी आपका दीलमें क्या है इसपर राजाने सब हाल कहा चन्द्रसेनने नम्रतापूर्वक मधुर वचनोसे कहा पितानी आपतो ज्ञानी है आप जानते है की सर्व नीव कम्र्माधिन है जो जो ज्ञानियोने देखा है अर्थात् भविव्यता होगा सोही होगा आप तो अपने दिलमें शान्ति रखो जैन धर्म का यह ही सार है मेरी तरफ से आप खातरी रखिये कि मेरी नशो में आपका खून रहेगा वहां तक तो में तन मन धनसे जैन धर्म की सेवा करूगा । इससे राजा जयसेन को परम संतोष हुषा तद्यपि अपनि अन्तिमा
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उपवेशपट्टन की स्थापना.
( २७ ) बस्था में मंत्रियों उमरावो को खानगीमे यह सूचन करदोथी की मेरे पीच्छे राजगादी चन्द्रसेन को देना कारण वह राज के सर्व काय्र्यो में योग्य है फिर राजातो अरिहंतादि पंचपरमेष्टि का स्मरण पूर्वक मृत्युलोग और नाशमान शरीर का त्याग कर स्वर्गकी तरफ प्रस्थान कर दीया. यह सुनते ही नगर मे शोक के बादल छा गये. हाहाकार मचगया, सबलोगोने मिलके राजाकी मृत्युक्रिया वडाद्दी समारोह के साथ करी बाद रातगादी बेठाने के विषय मे दो मत हो गया एकमत का कहनाधा कि भीमसेन बडा है वास्ते राजका अधिकार भीमसेनको है दूसरा मत था की महाराज जयसेनका अन्तिम कहना है कि राज चन्द्रसेन को देना और चन्द्रसेन राजगुण धैर्य गांभिर्य वीरता - प्राक्रमी और राज तंत्र चलाने मे भी निपुण है इन दोनो पार्टियोके बाद विवाद तर्क वाद यहां तक बडगबाको जिस्का निर्णयकरना भुजबलपर आपडा पर चन्द्रसेन अपने पक्षका - रोको समनादीया की मुझे तो राजकी इच्छा नहीं है आप अपना हटको छोड दीजिये. गृह कलेशसे भविष्य में बड़ी भारी हानी होगा इत्यादि समझाने पर उनने स्वीकार कर लिया बस । फिर थाहो क्या ब्रह्मणों का और शिवोपासकोका पाणि नौ गज चढ गया बडी धामधूमसे भीमसेनका राजाभिषक हो गया. पहला पहल ही भीमसेनने अपनि राज सताका जौर जुलम जैनोपर हो जमाना शरु कोया कभी कभी तो राजसभामेभी चन्द्रसेन के साथ धर्म युद्ध होने लगा । तब चन्द्रसेन ने कहा कि महाराज अब आप राजगादीपर न्याय करने को विराजे है तो आपका फर्ज है की जैनोको और शिवोको एक ही दृष्टि से देखे जैसे महाराजा जयसेन परम जैन होने पर भी दोनो धर्म वालोको सामान दृष्टिसे ही देख
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( २८ ) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरां. तेथे में ठीक कहता हु कि आप अपनी कुट नीतिका प्रयोग करोगे तो आपके राजकी आज जो अबादी है वह आखिर तक रहना असंभव है इत्यादि बहुत समजाया पर साथमे ब्राह्मण भीतो राजाकी अनभिज्ञताका लाभ ले जैनोसे बदला लेना चाहाते थे भीमसेनको राजगादी मीली उस समयसे जैनोपर जुलम गुजारना प्रारंभ हुवा आज जैन लोगा पुरी तंग हालतमें आ पडे तब चन्द्रसेन के अध्यक्षत्वमे एक जैनोकी विराट सभा हुइ उसमें यह प्रस्ताव पास हुवा कि तमाम जैन इस नगरको छोड देना चाहिये इत्यादि बाद चन्द्रसेन अपना दशरथ नामका मंत्रीको साथले आबुकी तरफ चलधरा वहांपर एक उन्नत भूमि देख नगरी वसाना प्रारंभकरदीया बाद श्रीमाल नगरसे ७२००० घर जिस्मे ५५०० घर तो अर्वाधिप और १००० घर करीबन् क्रोड' पति थे वह सभी अपने कुटम्ब सह उस नुतन नगरीमें आगये । उस नगरीका नाम चन्द्रसेन रानाके नामपर चन्द्रावती रखदीया प्रज्याका अच्छा जम्माव होने पर चन्द्रसेनको वहांका राज पद दे राज अभिषेक कर दीया. नगरीकी आबादी इस कदर से हुइ की स्वल्प समयमें स्वर्ग सदृश बन गइ राजा चन्द्रसेन के छोटे भाइ शिवसेनने पास ही में शिवपुरी नगरी बसादी वह भी अच्छी उन्नतिपर बस गइ.
इधर भीमाल नगरमे जो शिवोपासक थे वह ही रह गये नगरकी हालत देख भीमसेनने सोचा को ब्रह्मणों के धोखा में आके मेने यह अच्छा नहीं किया पर अब पश्चाताप करनेसे होता क्या है रहे हुवे नागरिको के लिये उस श्रीमाल नगरके तीन प्रकोट बनाये पहला में कोडाधिप दुसरा में लक्षापति तीसरा में साधारण लोग एसी रचनाकरके श्रीमाल नगरका नाम भीनमाल रखदीया यह राजा के नामपर ही रखा था कारण उधर चन्द्रसेन ने अपने
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उपकेशपट्टन की स्थापना.
(२९) नामपर चन्द्रावती नगरी आबाद करीथी चन्द्रसेनने चन्द्रावती नगरी में अनेक मन्दिर बनाया जिस्की प्रतिष्ठा आचार्य स्वयंप्रभसूरि के करकमलोंसे हुई थी अस्तु चन्द्रावती नगरी विक्रमकी बारहवी तेरहवी शताब्दी तक तो बडी आबाद थी ३६० घरतो क्रोडपति के थे और ३२० जैन मन्दिर थे हमेश स्वा मोवात्सल्य हुवा करता था आज उसका खन्डहर मात्र रह गया है यह समयकी ही बलीहारी है
इधर भिन्नमाल नगर शिवोपासकों का नगर बन गया वहांका कर्ता हर्ता सब ब्राह्मण ही थे, राजा भीमसेन एक नाम का ही राजा था राजा भीमसेनके दो पुत्र थे एक श्रीपुंज दूस रा उपलदेव पटावली नं. ३ में लिखा है कि भीमसेनका पुत्र श्रीपुंज और श्रीपुंज के पुत्र सुरसुंदर और उपलदेव पर समय का मीलन करनेसे पहली पट्टावलीका कथन ठीक मीलता हुवा है। महाराज भीमसेनके महामात्य चन्द्रवंशीय सुबड था उसके छोटा भाइका नाम उहड था सुबड के पास अठारा क्रोडका द्रव्य होनेसे पहला प्रकोट में और उहड के पस नीनाणये लक्षका द्रव्य होनेसे दूसरा कोटमे बसता था एक समय उहड के शरीरमे रात्रिमें तकलीफ होनेसे यह विचार हुवा कि हम दो भाइ होने पर भी एक दूसरे के दुःख सुख में काम नहीं आते है वास्ते एक लक्ष द्रव्य वृद्ध भाइसे ले में क्रोडपति हो पहला प्रकोट में जावसु. शुभे उहड अपने भाई के पास ना के एक लक्ष द्रव्य की याचना करी इसपर भाईने कहा की तुमारे विगर प्रकोट शुन्य नहीं है (दूसरी पदावलि मे लिख है की भाई की ओरत ने एसा कहां ) कि तुम करज ले क्रोडपति होनेकी कौशीस करते हों इत्यादि यह अभिमान का वचन उहड को बडा दुःखदाई हुवा झट वहांसे निकल
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(३०)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. के अपने मकान पर आके एक लक्ष द्रव्य पैदा करनेका उपाय सोचने लगा,
इधर युगराज श्रीपूंज के और उपलदे व राजकुमर के आपस में बोलना होनेपर श्रीपुंज ने कहा भाई एसा हुकम त तुम अपने भुजबलसे रान जमावो तब ही चलेगा ? इस ताना के मारा उपलदेव राजकुमर प्रतिज्ञा कर ली की जब हम भुज. बलसे रान स्थापन करेंगे तब ही आप को मुह बतलावेंगें बस ! इसके सहायक ऊहड मंत्री विघ्रचित में बेठा ही था दोनों के आपस में बातें हो जाने से वह भि भिन्नमालनगर से निकल गया और चलते चलते रहस्तामें एक मनुष्य मीला उसने पुच्छा कुमरसाब आज किस तरफ छडाई हुई है उपलदेवने उत्तर दीया कि हम एक नया राज स्थापन करने कों ना रहे है फिर पुच्छा यह साथ में कोन है ? यह हमारा मंत्रि है उस सरदारने कहा कुमर साब राज स्थापन करना कोइ बालकों का खेल नहीं है आप के पास एसी कौनसी सामग्री है कि जिसके बलसे आप राज स्थापन कर सकोगे? कुमर ने कहां की हमारी भूनामे सब सामग्री भरी हुई है इसी भुज बलसे ही हम नया राज स्थापन कर सकेगें ? इस वीरता का वचन सुन सरदारने आमन्त्रण कीया की आज दिन बहुत तंग हे वास्ते रात्रि हमारे यहां विश्राम लो कल पधार जाना बहुत आग्रह होनेसे कुमर ने स्वीकार कर उस सरदार के साथ चल दीया वह सरदार था संग्रामसिंह वैराट नगर को राजा, कुमर को बडे सत्कार के साथ अपना नगरमें लाया बहुत स्वागत कर उसका शौर्य धर्य और धीरता देख संग्रामसिंह अपनि पुत्री की सगाई उस उपलदेव कुमर के साथ कर दी रात्रि तो वहाँ ही रहै दूसरे दिन प्रातःसमय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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उपकेशपट्टन की स्थापना.
( ३१ ) वहांसे चल दीया रहस्ता में अश्व व्यापारियोंसे ५५ अश्व ( दूसरी पट्टावलिमे १८० अश्व लिखा है ) ले के ढेलीपुर ( दिल्लि ) पहुंचे वहां श्री साधु नामका राजा राज करता था वह छैमास राजका काम देखता था और छैमास अन्तेबर महलमे रहता था उत्पलदेव राजकुमार हमेशा राज दरबार मे जाया करता था और एकेक अश्व भेट किया करता था. जब ५५ दिन व १८० दिनमें सब घोडें भेटकर चुका तब दूसरे दिन राजा राज सभामें आया और वह अश्व भेट की बात सुनी तब उपलदेव कुमार को बुलाया पुच्छनेपर कुमरने कहां मे भिन्नमाल के राजा भीमसेन का पुत्र हुं नयानगर वसाने के लिये कुच्छ जमीन की याचना करने के लिये यहां आया हुं इस विषय पट्टावलियों के अलावे कुच्छ प्राचीन कवित भी मीलते हे पर वह स्यात् पीच्छे से किसी कवियों ने रचा हुवा ज्ञात होता है । खेर राजा श्री साधु कुमर की वीरता पर मुग्ध हो एक घोडी दे दी की जावें। जहांपर उजड भूमि देखा वहां ही तुम अपना नया नगर वसा लेना पासमें एक शुकनी बेठा या उसने कहा कुमार साब जहां घोडी पैशाब करे वहां ही नगर वसा देना, इसी शुकनो पर राजकुमार और मंत्री वहां से सवार हो चल धरे कि शुबह मंडोर से कुच्छ आगे उजडभूमि पडी थी वहां घोडिने पैशात्र कीया बस वहां ही छडी रोप दी नगर बसाना प्रारंभ कर दीया उसीली जमीन होनेसे उस नगर का नाम उपणपट्टन रख दीया मंत्रीश्वरने इधर उधर से लोगों को लाके नगर में वसा रहे थे यह खबर भीनमाल में हुई वहां से भी उपलदेव उद्दड के कुटम्ब के साथ बहुत से लोग आये ।
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ततो भीनमालात् अष्टादश सहस्र कुटम् आगत
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(३२)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. द्वादश योजन नगरी जाता" इस के सिवाय केह प्राचीन कषित भी मीलते है । " गाडी सहस गुण तोस, रथ सहस इग्यार अठारा सहस असवार, पाला पायक को नहीं पार ओठी सहस अठार, तोस हस्ती मद झरंता दश सहस दुकान, कोड व्यापार करता पंच सहस विप्र भीनमाल से, मणिधर साथे माडिया." शाहा उहडने उपलदे सहित, घर बार साथे छांडिया ॥१॥
अगर उपलदे व और ऊहड के कुटुम्ब अटारा हजार और शेष बाद में आया हो पर यह तो ठीक है कि भिन्नमाल तुट के उएशपट्टन बसी है । मूळ पट्टावलिमें नगर का विस्तार बारह योजन का है साथ में मंडोवर भी उस समय में मोजुद थी उएश का नाम संस्कृत ग्रन्थ कारोने उपकेशपट्टन लिखा है उएश का अपभ्रंश " ओशीयों हुवा है दन्तकथाओं से ज्ञात होता है कि ओशीयों से १२ मिल तिवरी तेलीपुरा था ६ मिल खेतार क्षत्रिपुरा था २४ मिल लोहावट ओशीयों को लोहामंडी थी ओशीयों से २० मिल पर घटियाला ग्राम है वहां पर दरवाना था जिसके पुरांणे कुच्छ चिन्ह अभी भी खोद काम से मिलते है थोडॉ हो वर्षा पहला तिवरी के पास खोद काम करतो एक शिखरबंद्ध जैन मन्दिर जमीन से निकला है इत्यादि प्रमाणों से उएश नगरी इतिनी बडी हो तो असंभव नही है-दूसरा यह भी तो है कि जहां चार पांच लक्ष घरों की संख्या हो वह बारह योजन विस्तार में नगरी हो तो एसा कोई आश्चर्य भी नहीं है । नूतन वसा हुवा उप के शपट्टन थोडा ही वर्षों में इतना
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उपकेशपट्टन की स्थापना.
(३३) आबाध हो गया की वहां लाखो घरों की वस्ती हो गई व्यापार का एक केन्द्र स्थान बन गया पास मे मीटा मेहरबान समुद्र भी था वास्ते जल थल दोनों रहस्ते व्यापार चलता था राना की तरफ से व्यापारीयों को बड़ी भारी सहायता मीलती थी नहां व्यापार की उन्नति है वहां राजा प्रजा सब की उन्नति हुवा करती है इति उपकेशपट्टन स्थापना सम्बन्ध ।
__ आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि अपने ५०० मुनियों के साथ मू. मण्डल को पवित्र करते हुवे क्रमसे उपके शपट्टन पधारे वहां लुणाद्री छोटीसी पहाडीथी वहां ठेर गये " मासकन्प अरण्ये. स्थिता" एक मासकी तपश्चर्या कर पहाडीपर रहे पर किसी एकबच्चातकने भी सूरिजी की खबर न लो. बाद केइ मुनियों के तप पारणा था वह भिक्षाके लिये नगर में गये "गोचर्या मुनीश्वरा व्रजंति परंभिक्षा न लभते लोकामिथ्यत्व वासिता यादृशा गता तादृशा आगता मुनीश्वराः तपोवृद्धि पात्राणि प्रतिलेष्यमास यावत संतोषेण स्थिताः नगरमे लोग वाममागि देवि उपासक मांस मदिरा भक्षी होनेसे मुनियों को शुद्ध भिक्षा न मीलनेपर जैसे पात्रे ले के गयेथे वसेही वापिस आगये मुनियों ने सोंचा कि आज और भी तपोवृद्धि हुइ पात्रोका प्रतिलेखन कर सतोषसे अपना ज्ञानध्यानमे मग्न हो आत्मकल्यानमें लग गये । इसपर (१) यति रामलालजी महाजनवंश मुक्तावलिमें लिखते है कि रत्न प्रभसूरि एक शिष्य के साथ आये भिक्षा न मिलनेसे गृहस्थों की औषधी कर भिक्षा लातेथे. और (२) सेवगलोग कहते है कि उन मुनियों को भिक्षा न मीलनेसे हमारे पूर्वजोंने भिक्षा दी थी (३) भाट भोजक कहते है कि भिक्षा न मीलने पर आचा
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(३४)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. र्यका शिष्य जगलसे लकडीयों काट भारी बना बजारमे वेंचके उसका धान ला रोटी बनाके खाताथा इसी रीतसे उस शिष्यके सिरके बालतक उड गये । एकदा सूरिनीने शिष्यके सिरपर हाथ फेरा तो बाल नही पाये तब पुच्छने पर शिष्यने सब हाल सुनाया जब सूरिजीने एक रुइका मायावी साप बनाके राजाका पुत्रको कटाया और ओसवाल भनाया इत्यादि यह सब मनकल्पीत झूटी दान्तकथाओं है कारण अखण्डित चारित्र पालनेवाले पुर्वधर मुनियोंकों एसे विटम्बना करने की जरूरत क्या अगर मिक्षा न मीली तो फिर उस नगर में रहने का प्रयोजन ही क्या उस समय मामुली साधुभी एक शिष्यसे विहार नहीं करते थे तो रत्नप्रभाचार्य जेसे महान् पुरुष विकट धरतीमें एक शिष्य के साथ पधारे यह विलकुल असंभव है आगे भाट भोजको या यतियोंने रत्नप्रभसूरिका समय बीयेबाइसे २२२ का बतलाते है वह भी गलत है जिसका खुलासा हम फिर करेंगे दर असल वह समय विक्रम पूर्व ४०० वर्षका था और भिक्षा के लिये मुनियोंने तर वृद्धि करीथी।
मुनियों के तपवृद्धि होते हुवेकों बहुत दिन हो गये तब उपाध्यया वीरधवळने सूरिनीसे अर्ज करी कि यहां के सब लोग देवि उपासक वाममागि मांस मदिर भक्षी है शुद्ध भिक्षा के अभाव मुनियोका निर्वाहा होना मुश्किल है ? इस पर आचार्यधीने कहा पसाही हो तो विहार करों. मुनिगण तो पहलासे ही तैयार हो रहे थे हुकम मिलतोही कम्मर बन्ध तय्यार हो गये। यह हाल वहां की अधिष्टायिका चमुंडा देविको ज्ञानद्वारा ज्ञात हुवा तब देविने सोचा कि मेरी सखी चक्रेश्वरी के भेजे हुवे महात्मा यहां पर आये है और यहांसे क्षुद्धा पिपास पिडित चले जायेंगें तो इसमें मेरी अच्छी न लागेगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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आचर्यरत्नप्रभसूरि.
(३५) इस विचारसे देषी सूरिजी के पास आई " शासन देव्या कथितं भोप्राचार्य अत्र चतुर्मासकं करूं तत्र महालाभो भविष्यति" है. आचार्य । आप यहां मेरी विनंतिसे चतुर्मास करो यहां आपको बहुत लाभ होगा इस पर सूरिजी देवि की विनंतिको स्वीकार कर मुनियोंसे कह दीया कि जो विकट तपस्या के करने वाले हो वह हमारे पास रहे शेष यहां से विहार कर अन्य क्षेत्रोंमे चतुर्मास करना इस पर ४६५ मुनि तो गुरु आज्ञासे विहार किया "गुरु: पंचत्रिंशत् मुनिभिः सहस्थितः" आचार्यश्री ३५ मुनियों के साथ वहां चतुर्मास स्थित रहे । रहे हुवे मुनियोने विकट यानि उत्कृष्ट चार चार मासकी तपस्या करली।
और पहाडी की बनराजी मे आसन लगा के सामाधि ध्यान में रमणता करने लग गये । “ज्ञानामृत भोजनम् "
इधर स्वर्ग सदृश उपदृश पकेन में राजा उत्पलदेव राम राज कर रहा था अन्य राणियों में जालणदेवी ( सग्रामसिंहकी पुत्री) पट्टराणि थी उसके एक पुत्री जिस्का नाम शोभाग्यदेवी था वह वर योग्य होनेसे राजा को चिंत्ता हुई वर की तलास कर रहा था एकदा राणिके पास राजाने वात करी तव राणिने कहा महाराज मेरी पुत्री मुझे प्राणसे वल्लभ हे एसा न हो की आप इसकों दूर देशमें दे मेरे प्राणों को खो बेठो आप एसा वर रहै बाई रात्रिमे सासरे और दिनमें मेरे पास की, तलास करावे कि इत्यादि राजा यह सुन और भी विचारमे पड गया।
इधर उहडदे मंत्रि के तिलकसी नाम का पुत्र अच्छा लिखा पढा रुपमे भी सुन्दर कामदेव तूल्य था उसे देख
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( ३६ )
जैन जातिमहोदय. प्र-तीसरा.
राजाने साचाकी शोभाग्यदेवी की सादी इसके साथ कर देने मे एक तो में मंत्रि का ऋणि हुँ वह भी अदा हो जायगा दूसरा राणिका कहना भी रह जायगा एसा समझ वडे आडाम्बर के साथ अपनी कन्या शोभाग्यदेवी मंत्रेश्वरका पुत्र तिलोकसी को परणादी. वह दम्पति एकदा अपनि सुखशेयमें सुते हुवे थें " मंत्रीश्वर ऊहड सुतं भुजंगेनदृष्टः " मंत्रीश्वर के पुत्र तीलोकसी को अकस्मात् सर्प काट खाया " अज्ञ लोक कहते है की सूरिजीने रूई का साप बना के राजा का पुत्र को कटाया था यह बिलकुल मिथ्या है " नूतन परणा हुवा राजा का जमाई ( मंत्रीश्वर का पुत्र ) को सांप काट खाने से नगर मे हा-हाकार मच गया बहुत से मंत्र यंत्र तंत्र बादी आये अपना अपना उपचार सबने किया जिसका फल कृच्छ भी न हुवा आखिर कुमरको अग्नि संस्कार करने के लिये स्मशान ले जाने की तैयारी हुई " तस्य स्त्री काष्ट भक्षणे स्मशाने आपाता " राजपुत्री सौभाग्यदेवी अपना पति के पीच्छे सती होने को अश्वारूढ हो वह भी साथ मे हो गई । राजा मंत्री और नागरिक महान् दुःखि हुवे रूदन करते हुवे स्मशान भूमि की तरफ जा रहे थे " कारण उस समय एसी मृत्यु कचित् ही होती थी" -
इधर चमुंडा देवने सोचा कि मेने सूरिजी को विनंति कर रख तो लिया और कहा था कि बहुत लाभ होगा जिसका आज तक मेने कुच्छ भी प्रयत्न नहीं किया पर आज यह अवसर लाभ का है एसा विचार एक लघु मुनि का रूप बना स्मशान की तरक जाता हुवा कुमर का झापन (सेविका) के सामने जाके कहा कि " जीवितं कथं ज्वालियतः " भो लोगों इस जीवत कुमर को जलाने को क्यों ले जाते हो इतना कह
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मंत्रिपुत्र को सर्प काटा.
( ३७ ) देवितों अदृश हो गई ( दूसरी पट्टावलि में वह मुनि सूरिनी का शिष्य था ) लोगों ने यह सुन बडा हर्ष मनाया और राजा व मंत्री के पास खुशखबरदी राजाने हुकम दीया कि उस मुनि को लावों, पर मुनि तो अदृश हो गया था तब सब कि सम्मति से सब लोगों के साथ कुमर का झांपांन को ले सूरिजी के पास आये " श्रेष्टि गुरु चरणे शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु ममदेवरूष्टामम गृहीशून्यो भवति तेन कारणेनमम पुत्र भिक्षां देहि " राना और मंत्री गुरुचरणो मे सिर का के दीनता के बचनो से कहने लगे । हे दयाल। करूणासागर आज मेरे पर देव रूष्ट हुवा मेरा गृह शुन्य हुवा आप महात्मा हो रेखमें भी मेख मारने कों समर्थ हो वास्ते में आपसे पुत्ररूपी भिक्षा की याचना करता हु आप अनुग्रह करावे । इसपर उ० वीरधवल ने कहा “प्रासु जल मानीय चरणोप्रक्षाल्य तस्य छटितं" फासुकजल से गुरु महाराज के चरणो का प्रक्षाल कर कुमर पर छंट को बस इतना कहने पर देरी ही क्या थी गुरु चरणों का प्रक्षाल कर कुमर पर जल छांटतो ही "सहसाकारण सजोर भूवः" एकदम कुमर बेठा हुवा इधर उधर देखने लगा तो चोतरफ हर्षका वाजिंत्र बज रहा लोग कहने लगे कि गुरु महाराज को कृपासे कुमरजी आज नये जन्म आये है सब लोगाने नगरमे जा पोषाको बदल के बडे गाजावाजा के साथ सूरिनी को हजारो लाखों जिहाओं से आशीर्वाद देते हुवे बडे ही समरोह के साथ नगर मे प्रवेश किया. राजाने अपने खजानावालो को हुकम दे दिया कि खजाना में बडिया से पडिया रत्नमणि माणक लीलम पन्ना पीरोजिया लशणियादि बहुमूल्य जवेरायत हो वह महात्माजी के चरणौ में भेट करो? तदानुस्वार रत्नादि भेट किये तथा ऊहड श्रेष्टिने भी बहुत द्रव्य भेट किया।
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( ३८ )
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. "गुरुणा कथितं मम न कार्ये" आचार्यश्रीने फरमाया कि मेने तो खुद ही वैताड्य गिरि का राज और राज खजाना त्याग के योग लिया है अब हम त्यागियों को इस द्रव्यसे क्या प्रयोजन है यह तो गृहस्थ लोगोंका भूषण है अगर इसे देशहित धर्महित में लगाया जाय तो पुन्थोपार्जित हो सक्ता है नहींतो दुर्गतिका ही कारण है इत्यादि । अगर हमे खुश करना चाहाते हो तो "भवद्भिः जिनधर्मोगृह्यता" आप सब लोग पवित्र जैनधर्मकों स्वीकार करों जिससे तुमारा कल्याण हो इत्यादि ।
यह सुन श्रेष्टि वैगरह राजाके पास नाके सब हाल सुनाया आचार्यश्री की निःस्पृहीताने राजाके अन्तकरण पर इतना अमर डाला कि वह चतुरांग शैन्या और नागरिक जनांको साथ ले सूरिजीको वन्दन करनेको बड़े ही आडम्बर से आयां आचार्यश्रीको वन्दन कर बोलाकि हे भगवान् ! आपतो हमारे जैसे पामर जीवों पर बडा भारी उपकार किया है जिस्का बदला इस भवमे तो क्या परभवोभयमे देने को हम लोग असमर्थ है हमारी इच्छा आपश्री के मुखाविन्दसे धर्म श्रवण करने की है।
आचार्यश्रीने उच्चस्वर और मधुरभाषासे धर्मदेशना देना प्रारंभ किया है राजेन्द्र ! इस आरापार संसारके अन्दर जीव परिभ्रमण करते हुवे को अनंताकाल हो गया कारण कि सुक्षमबादर निगोदमें अनंतकाल पृथ्वीपाणि तेउवायुमें असं. ख्याताकाल एवं पकेन्द्रियमें अनंतानंतकाल परिभ्रमन कीया बाद कुच्छ पुन्य बड जानेसे बेन्द्रिय एवं तेन्द्रिय चोरिन्द्रिय व तीर्यच पांचेन्द्रिय अनार्य मनुष्य या अकाम पुन्योदय देष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सूरिजी का उपदेश.
(३९) योनिमें भ्रमन किया पर उत्तम सामग्री के अभाव शुद्ध धर्म न मीला, हे राजन् ! सुकृत कर्मका सुकृत फल और दुःकृत कर्मका दुःकृतफल भविष्यमे अवश्य मोलता है सबसे पहला तो जीवोको मनुष्यभव मीलना मुश्किल है कदाच मनुष्य भव मील गया तो आर्य क्षेत्र उत्तम कुल शरीरनिरोग इन्द्रियोपूर्ण और दोर्घायुष्य क्रमशः मोलना दुर्लभ है कदाच यह सब सामग्री मील जावे तो सद्गुरुओं की सेवा मिलना कठिन है यह आप जानते हो कि गुरु विगरह ज्ञान हो नहीं सकता है जगत् मे एसे भी गुरु नाम धराने वाले पाये जाते है की वह भांगों पीना, गाजा चडश उडाना, व्यभिचार करना, यज्ञहोम के नाम हजारो लाखों पशुआंके प्राण लुटना मांस मदिरा भक्षण करना इत्यादि अत्याचार करने वालोसे सद्गुणोंकी प्राप्ति कभी नहीं होती है वास्ते आत्मकल्याणके लिये सबसे पहला सद्गुरु की आवश्यक्ता है सद्गुरू मिलने पर भी सदागम श्रवण करणा दुर्लभ है विगरह सुने हिताहित की खबर नहीं पड सकती है अगर सुन भी लीया तो सत्य वातको स्वीकार करना बड़ा ही मुश्किल है स्वीकार करने पर भी उस पर पाबंदो रख उस्मे पुरुषार्थ करना सबसे कठिन है।
हे धराधिप । इस पृथ्वीपर के धर्म प्रचलित है सबमे प्राचीन और सर्वोत्तम है तो एक जैन धर्म है जन धर्म का तत्वज्ञान इतना उच्च कोटि का है को साधारण मनुष्य उस्मे एकदम प्रवेश होना असंभव है जैन धर्म का आचार व्यवहार भी सब से उच्च दर्जा का है अहिंसा परमो धम्मेः जैन धर्म का मुख्य सिद्धान्त है यह धम्म संपूर्ण ज्ञानवाले सर्वज्ञ का फरमाग हुवा है मांस मदिर सिकार परस्त्रीगमन वैश्यागमन चौथे
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(४०)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा.
जुवा एवं सात कुव्यसन सर्वता तज्य है रात्रिभोजनादि अभक्ष पदार्थों की बिलकुल मना है जो पूर्वोक्त कार्य करनेवाले धर्म और धर्म गुरुओ की तरफ जैन हमेशो तिस्कार की दृष्टि से देखता है जैन धर्म पालने वालो के लिये मुख्य दोय रहस्ता बतलाया हुवा है (१) गृहस्थ धर्म (२) मुनि धर्म जिस्मे गृहस्थ धर्म के लिये सम्यक्त्व मूल बारहा व्रत है किस्मे व्यवहार सम्यक्त्व उसे कहते है कि (१) देव अरिहन्त वीतराग सर्वज्ञ लोकालोक के भावो को जाननेवाले सदा परोपकार के लिये जिसका प्रयत्न है जिस्के जीवन की पवित्रता और मुद्रामें शान्त रस देखने से ही दुनिया का भला होता है एसे देव को देव बुद्धिकर मानना इस्के सिवाय राग द्वेष विषय विकार के चिन्ह जिस के पास मे हो जिस के पशुओ की बलि चढती हो एसे देव मे कभी देवत्व न समने (२) गुरु निग्रन्थ अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचार्य और ममत्व भाव रहीत अचाई सच्चाई अमाई न्याई वैपरवाई उसका लक्षण हे परोपकार पर जिस का जीवन है इत्यादि (३) धर्म जिस देखने अपना संपूर्ण ज्ञान बलसे दुनियों का उद्धार के लिये धर्म कहा है जैसे दान शील तप भाव पूजा प्रभावना सामायिक प्रतिक्रमण व्रत नियम विनय भक्ति सेवा उपासना आसन समाधि ध्यान इत्यादि अर्थात् पहला इन देवगुरु धर्म पर खुब दृढ श्रद्धा प्रतित और सूची होना जरूरी है बाद अगर गृहस्थ धर्म पालना है तो उसके लिये बार हा व्रत है (१) पहला व्रतमे हलता चलता जीवों को विगर अपराध मारने की बुद्धिसे नहीं मारना अगर कोई अपराध करे कोइ मारने को आवे आज्ञा का भंग करे उस का सामना करना इस व्रत का भंग नहीं है (२) दूसरा व्रत में राजदंड ले लोगों मे भांडाचार हो एसा बडा झुटबोलना मना
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बारहा व्रत विवर्ण.
(४१ ) है (३) तीसरा व्रतमे पूर्वोक्त स्थुल चौरी करना मना है (४) चतुर्थ व्रत में परखि वैश्यादि से गमन करना मना है (५) पंचषा व्रत में धनमाल राज स्टेट बगरह का नियम करने पर अधिक बडाना मना है (६) छठा व्रत में चोतरफ दिशाओं में जितनी भूमिका में जानेका प्रमाण कर लिया हो उससे अधिक नाना मना है (७ ) सातवा व्रत में पहला तो भक्षाभक्षका विचार है मांस मदिर वासी विद्वल सहेत मक्खनादि जो कि जिस्मे प्रचूर जीवों की उत्पति हो वह खाना मना है दूसरा व्यापरा. पेक्षा है जिस्मे ज्यादा पाप और कम लाभ और तुच्छव्यापर हो एसे व्यापार रूपी कर्मादान करनामना है (८) अनर्था दंडवत है जोकी अपना स्वार्थ न होने पर भी पापकारी उपदेशका देना दूसरों की उन्नति देख इर्षा करना आवश्यक्तासे अधिक हिंसा कारी उपकरण एकत्र करना प्रमाद के वस ही घृत तेल दुद्ध दही छास पाणि के वरतन खुले रख देना इत्यादि (९) नौवा व्रतमे हमेशां समताभाव सामायिक करना (१०) दशवा व्रतमे दिशादि मे रहे हुवे द्रव्यादि पदार्थों के लिये १४ नियम याद करना (११) ग्यारया व्रतमे आत्माको पुष्टिरूप पौषध करना (१२) बारहवा व्रत अतित्थी महात्माओको सुपात्रदान देना इन गृहस्थधर्म पालने वालोको हमेशों परमात्मा की पूजा करना नये नये तीर्थो की यात्रा करना स्वाधर्मि भाइयों के साथ वात्सल्यता और प्रभावना करना नीवदया के लिये बने वहां तक अमरिय पहडा फीराना, जैनमन्दिर जैनमूर्ति ज्ञान साधुसाध्वियों श्रावक श्राविकाओं एवं सात क्षेत्रमे समर्थ होनेपर द्रव्य को खरचना और जिनशासनोन्नति मे तनमन धन लगा देना गृहस्थोंका आचार है आगे बड के मुनिपद की इच्छावाले सर्व प्रकारसे जीवहिंसाका त्याग एवं झट बोलना चोरी
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( ४२ )
जैन जाति महोदय. प्र - तीसरा.
करना मैथुन और परिग्रहका सर्वता परित्याग करना. सिर का बाल भी हाथोंसे खेचना पैदल विहार करना परोपकारके सिवाय और कोई कार्य नहीं करना पसा मुनियोंका आचार है है राजन् ! इस पवित्र धर्मका सेवन करने से भूतकाल में अनंते जीव जरामरण रोगशोक और संसारके सव बन्धने से मुक्त हो सास्वते सुख जो मोक्ष है उस को प्राप्ति कर लीया था वर्तमान मे कर रहे है और भविष्यने करेंगा वास्ते आप सब सज्जन मिथ्या पाखण्ड मत्तका सर्वता त्याग कर इस शुद्ध पवित्र सर्वोत्तम धर्मकों स्वीकार करो तोकी आप इस लोक परलोकमे सुखके अधिकारी बने किमधिकम् ।
सूरिजी महाराजकी अपूर्व और अमृतमय देशना श्रवण कर राजा प्रजा एकदम अजब गजब और आश्चर्य में गरक बन गये. हर्ष के मारे शरीर रोमाचित हो गये कारण इस के पहला कभी एसी देशना सुनी ही नहीं थी । राजा हाथ नोड बोला कि हे प्रभो ! एक तरफ तो हमे बड़ा भारी दुःख हो रहा है और दूसरी तरफ हर्ष हमारा हृदय में समा नहीं सक्ता है इस का कारण यह है कि हमने दुर्लभ मनुष्यभव पाके सामग्री के होते हुवे भी कुगुरुओ की वासना की पास मे पड हमारा अमूल्य समय निरर्थक खो दीया इतना ही नहीं परधर्म के नाम से हम अज्ञान लोगोंने अनेक प्रकारका अत्याचार कर मिथ्यात्वरूपो पाप की पोठसिर पर उठाइ वह आज आपश्रीका सत्योपदेश श्रवण करने से ज्ञान हुआ है फिर अधिक दुःख इस बातका है कि आप जैसे परमयोगिराज महात्मा पुरुषोंका हमारे यहां विराजना होने पर भी हम हतभाग्य आप के दर्शनतक भी नहीं किया ।
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जैन धर्म की सत्यता.
( ४३ )
हे प्रभो । इसका कारण यह था कि हम लोगों को पहला से हि एसा शिक्षण दीया जाता था की जैन नास्तिक है ईश्वर को नहीं मानते है शास्त्रविधिसे यज्ञ करना भी वह निषेध करते है नग्न देव को पूजते है अहिंसा २ कर जनताका शौर्य पर कुठार चलाते है इत्यादि पर आज हमारा शोभाग्य है कि आप जैसे परमोपकारी महात्माओंके मुखाविन्द से अमृतमय देशना श्रवण करनेका समय मीला, हे दयाल | आज हमार सब भ्रम दूर हो गया है नतों जैन नास्तिक है न जैनधर्म जनताको निर्बल कायर बनाता है जिस्मे ईश्वरत्व है उसे जैनधर्म ईश्वर (देव) मानते है जैनधर्म एक पवित्र उच्च कोटीका स्वतंत्र धर्म है हे विभों । इतने दिन हम लोग मिथ्यात्व रुपी नशेमें एसे वैमान हो मिथ्या फाँसीमे फस कर सरासर व्यभिचार अधर्म्मका धर्म समझ रखाथा सत्य है कि विना परीक्षा पीतलकोभी मनुष्य सोना मान धोखा खालेता है वह युक्ति हमारे लिये ठीक चरतार्थ होती है हे भगवन् | हम तो आपके पहलेसेही ऋणि है आप श्रीमानोंने एक हमारे जमाइकोही जीवतदान नहीं दीया पर हम सबकों एक भव के लियेही नहीं किन्तु भवोभवके लिये जीवन दीया है नरकके रहस्ते जाते हुवे हमको स्वर्ग मोक्षका रहस्ता बतला दिया है इत्यादि सूरिजी के गुण कीर्तन कर राजाने कहा की हम सब लोग जैनधर्म स्वीकार करने को तैयार है आचार्यश्रीने कहा
"
जहांसुखम् " इस सुअवसर पर एक नया चमत्कार यह हुवा की आकाशमें सनघन अवाजो और झाणकार होना प्रारंभ हुवा सब लोग उर्ध्व दृष्टि कर देखने लगे इतनेमे तो वैमानोंसे उत्तरते हुवे सेंकडो विद्याधर नरनारियों सालंकृत शरीर सूरिजी के चरण कमलोर्मे बन्दना करने लगे इतनामे
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(४४)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. ओर आकाश गुंज उठा झणकार रणकार के साथ चक्रेश्वरी आंषिका पद्मावती और सिद्धायक। देवियों सूरिजीको वन्दनार्थ आई वहभी नम्रता भावसे वन्दन किया. राजा मंत्री ओर नागरिक लोग यह दृश्य देख चित्रवत् हो गये अहो हम निर्भाग्य इसे अमूल्य रत्नको एक कॉकरा समज तिरस्कार किया इस पापसे हम कैसे छुटेगे! राजा प्रजा सूरिजीसे जैनधर्म धारण करने में इतने तो आतुर हो रहे थे को सब लोगोंने जनौयों व कण्ठियों तोड तोडके सूरिजी के चरणों मे डालदी और अर्ज करी कि भगवान् आपहो हमारे देव हो आपही हमारे गुरु हो आपही हमारे धर्म हो आपके वचनहो हमारे शास्त्र है हम तो आजसे आप और आपकी सन्तानके परमोपसक है इतनाही नहीं पर हमारी कुल संतति भविष्यमे सूर्यचन्द्र पृथ्वीपर रहेगा यहांतक जैनधर्म पालेगा और आपके सन्ता. न के उपासक रहेगा यह सुनते ही चक्रेश्वरी देवि बज्ररत्नके स्थालमे वासक्षेप लाई सूरिजीने राजा उपलदेव मंत्रि उहड और नागरिक क्षत्रिय ब्राह्मण वैश्यों को पूर्व सेवित मिथ्यात्व की आलोचन करवाके महा ऋद्धि सिद्धि वृद्धि सयुक्त महामंत्र पूर्वक विधि विधान के साथ बास क्षेप दे कर उन भिन्न भिन्न वर्ण
और जातियोंका एक "महाजन संघ" स्थापन किया उस समय अन्य देवियों के साथ चमुंडा भी हाजर थी यह विच में बोल उठी कि हे भगवान् । आप इन सब को जैनोपासक बनाते सो तो ठीक है पर मेरा कड्डके मड्ड के न छोडावे सूरिजोने कहां ठीक है देवि तुमारा कड्डका मड्डका न छुडाया जावेगा । इस पवित्र दृश्य को देख उन विद्याधरोने
१ देखो नोट नम्बर ३
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जैनधर्मका स्वीकार.
(४५) राजा उपलदेवादि सब को उत्साहावृद्धक धन्यबाद दीया कि आप लोगोंका प्रबल पुन्योदय है कि एसे गुरु महाराज मीले है आपको कोटीशः धन्यबाद है कि मिथ्या फांसी से छुट पवित्र धर्म को स्वीकार कीया है आगे के लिये आप ज्ञान श्रद्धा पूर्वक इस धर्म का पालन कर अपनि आत्मा का कल्यान करते रहना राजा उपलदेव उन विद्याधरों का परमोपकार माना और स्वामि भाइ सभज महमान रहने की विनति करी इसपर वह आपसमे वात्सल्यता करते हुवे बाद देवियों और विद्याधर सूरिजी को वन्दन नमस्कार कर विसर्जन हुवे ।
अब तो उपकेशपुर के घर घरमें जैन धर्म की तारीफ होने लगी और रहे हुवे लोग भी जैन धर्म को स्वीकार करने लगें यह बात वाममार्गिमत्त के अध्यक्षो के मट्टों तक पहुंच गई की एक जैन सेबडा आया है वह न जाने राजा प्रज्यापर क्या जादु डारा कि वह सबको जैन बना दीया. अगर इस पर कुच्छ प्रयत्न न किया जावेगा तो अपनि तो सब की सब दुकानदारी उठ जावेगा । यह तो उनको विश्वास था कि राजा प्रज्या कों जैसे पाठ पढावेगे वसे ही मानने लग जावेंगे सेवडाने उसे जैन बनाया तो चलो अपुन फीरसे शैब बना देंगें एसा सोच वह सब जमात की नमात सज धज के राज सभामे आये. परं जैसे किसीका सर्व श्रेय लुट लेनेसे उन पर दुर्भाव होता है वैसे उन पाखण्डिीयों पर राजा प्रजा का दुर्भाव हो गया था. राजाने न तो उनको आदर सत्कार दीया न उने बोलाया इसपर वह लोग कहने लगे कि हे राजन् ! हम जानते है कि आप अपने पूर्वजो से चला आया पवित्र धर्म को छोड अर्थात् पूर्वनों की परम्परा पर लकीर फेर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ४६ )
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. जैन धर्म को स्वीकार किया है आपने ही नहीं पर आप के दादानी ( जयसेन राजा ) भी परम्परा धर्म छोड जैनी बन गये पर आपके पिताजीने सत्य धर्म की सोध कर पुनः हमारा धर्म के अन्दर स्थिर हो उसका ही प्रचार किया है भलो आप को एप्ता ही करना था तो हम को वहां बुला के शास्त्रार्थ तो कराना था कि जिससे आप को ज्ञात हो नाता की कौनसा धर्म सत्य सदाचारी और प्राचीन है इत्यादि इसपर राजाने कहा कि मेरा दादाजीने और मैंने जो किया वह ठीक सोच समझ के ही कोया है आपके धर्म की सत्यता और सहाचारमें अच्छी तरहसे जानता हूं कि नहां बेहन बेठी और माता के साथ व्यभिचार करने में भी धर्म माना गया है रूतुबंती से भोग करना तो तीर्थयात्रा जीतना पुन्य माना गया है धीकार है एसे धर्म और एसे दुराचार के चलाने वालो को में तो एसे मिथ्या धर्म का नाम कांनोमे सुनना में भी महान् पाप समझता हुं सरम है कि एसे अधर्म को धर्म मानकर भी शास्त्रार्थका मिथ्या गमंड रखते हो क्या पवित्र जैनधर्म के सामने व्यभिचारी धर्म शास्त्रार्थ तो क्यापर एक शब्द भी उच्चा रण करने को समर्थ हो सक्ता है अगर आप को एसा ही आग्रह हो तो हमारे पूज्य गुरुवर्य शाखार्थ करने को तय्यार है। गुस्से में भरे हुवे वाममागि बोले कि देरी किस की है हमतो इसी वास्ते आये है यह सुनते ही राजा अपने योग्य आदमियों को सूरिजी के पास भेजे और शास्त्रार्थ के लिये आमन्त्रण कोया. आदमियोंने सूरिजी से सब हाल निवेदन कीया यह सुनते ही अपने शिष्य मण्डलसे सूरिजी महाराज राज सभा में पधार गये। नगर मे इस बात की खबर होते ही सभा एकदम चीकार बद्ध भरा गई । प्रारंभ में ही उच स्वर से शैव बोल उठे कि
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शास्त्रार्थका फल.
(४७) हे लोगों में आज आमतौर से जाहिर करताहुं कि जैन धर्म एक आधुनीक धर्म है पुनः वह नास्तिक धर्म है पुनः वह ईश्वर को नहीं मानते है इनके मन्दिरो मे नग्न देव है इत्यादि इसपर सूरिजी के पास बेठा हुवा वीरधवलोपाध्याय ने गभिर शब्दो में बडि योग्यता से बोला कि जैन धर्म आधूनिक नहीं परन्तु प्राचीन धर्म है जिस जैन धर्म के विषय में वेद साक्षि दे रहे है ब्रह्मा विष्णु और महादेवने जैन धर्म को नमस्कार किया है पुरांणोवालोने भी जैन धर्म को परम पवित्र माना है ( देखा पहला प्रकरण में जैन धर्म की प्राचीनता ) ओर जैन धर्म नास्तिक भी नहीं है कारण जैन धर्म जीवाजीव पुन्य पाप आश्रव संवर निर्जरा वन्ध और मोक्ष तथा लोकअलोक स्वर्ग नरक तथा सुकृत करणि के सुकृत्त फल दुःकृतकरणि का दुकृतफलको मनाता है इत्यादि जैनास्तिक है नास्तिक पह हो कहा जा सकता है कि पुन्य पाप का फल व यह लोकपरलोक नमाने नास्तियों का यह लक्षण है कि वह व्यभिचार में धर्म बतलावे आगे ईश्वर के विषय में यह बतलाया गया था कि जैन ईश्वर को बराबर मानते है जो सर्वज्ञ वीतराग परमब्रह्म ज्योती स्वरूप जिस्को संसारी जीवों के साथ कोइ भी संबंध नहीं है लीला क्रीडा रहित जन्म मृत्युयोनि अवतार लेना दि कार्यो से सर्वता मुक्त हो उसे जैन ईश्वर मानते है नकी बगलमे प्यारी को ले बेठा है हाथ में धनुष्य ले रखा है केह यानि मे ही डेरा लगा रखा है केइ अश्वारूढ हो रहे है केइ पशुबलि में ही मग्न हो रहे है एसे एसे रागी द्वेषी विकारी निर्दय व्यभिचारीयों को जैन कदापि ईश्वर नहीं मानते है जैनों के देव नग्न नहीं पर एक अलौकीकरूप सालंकृत दृश्य और शान्तिमय है इत्यादि विस्तार से उत्तर देने पर पाखण्डियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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(४८)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. का मुह श्याम और दान्त खटे हो गये हाहो कर रहस्ता पकडा वह अपने मठों में जाके विशेष शूद्रलोग जोकि विल्कूल अज्ञानी और मांसमदिरा के लोलपी थे उन्हकों अपनी झालमें फसा के जैसे तेसै उपदेश दे अपने उपासक बना रखा पर उन पाखण्डियों की पोल खुल जाना से राजा प्रज्या कि जैन धर्मपर ओर भी अधिक दृढ श्रद्धा हो गई उपसंहार में सूरिजीने कहा भव्यों । हमे आपसे नतो कुच्छ लेना है न कोइ आप को धोखा देना है जनताको सत्य रहस्ता बतलाना हम हमारा कर्त्तव्य समझ के ही उपदेश करते है जिसको अच्छा लगे वह स्वीकार करें। भगवात् महावीर के सदुपदेशद्वारा बहुत देशो में ज्ञानका प्रकाश से मिथ्यांधकार का नाश हो गया है हजारो लाखो जिरापराधि जीवो की यझमे होती हुइ बलिरूप मिथ्या रूढियो मूल से नष्ट हो गइ पर यह मरूभूमि इस अज्ञान दशा व्याप्त हो रही थी पर कल्याण हो आचार्य स्वयंप्रभसूरि का कि वह श्रीमाल भिन्नमाल तक अहिंसा का प्रचार कीया आज आप लोगों का भी अहोभाग्य है कि पवित्र जैन धर्म को स्वीकार कर आत्म कल्यान करने को तत्पर हुवे हो इत्यादि- .
राजा उपलदेवने नम्रतापूर्वक अर्ज करी कि हे प्रभो ! भगवान महावीर और आचार्य स्प्रयंप्रभसूरि जो कुछ अहिंसा भत्तवती का झंडा भूमि पर फरकाया वह महान् उपकार कर गये पर हमारे लिये तो आप ही महावीर आप ही आचार्य है की हमे मिथ्याझालसे छुडवा के सत्य रहस्ता पर लगाया इत्यादि जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई ।
एक उपकेशपट्टनमें हो नहीं किन्तु आसपासमें जैसे जैसे जैन धर्मका प्रचार होता गया वैसे वैसे पाखण्डियां का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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शास्त्रार्थका फल.
(४९) मिथ्यात्व मार्ग लुप्त होता गया. राजा उपलदेव आदि सूरिनी कि हमेशो सेवा भक्ति करते हुधे व्याख्यान सुन रहे थे सूरिजीने तरवमिमंसा तत्वसार मत्त परिक्षादि केह ग्रन्थ भी निर्माण किये थे एक समय राजाने पुच्छा कि भगवान् यहां पाखंण्डियोका चिरकालसे परिचय है स्यात् आपके पधार जाने के बाद फिरभी इनका दाव न लग जावे वास्ते आप एसा प्रबन्ध करावे की साधारण जनताकि श्रद्धा जैनधर्मपर मजबुत हो जावे ? सूरिनीने फरमाया कि इस के लिये दो रहस्ता है (१) जनतत्वोंका ज्ञान होना ( २ ) जैन मन्दिरोंका निर्माण होना । राजाने दोनों बातों को स्वीकार कर एक तरफ तो ज्ञानाभ्यास वडाना सरू कीया दूसरी तरफ लुणाद्री पहाडी के पास की पहाडो पर एक मन्दिर बनाना प्रारंभ करदीया । उसी नगरमें कहड मंत्री पहले से ही एक नारायणका मन्दिर बना रहा था पर वह दिनको बनावे और रात्रिमें पुन: गिरजावे इससे तंगहो सूरिनीसे इसका कारण पुच्छा तो सूरिजीने कहा कि अगर यह मन्दिर भगवान महावीर के नाम से बनाया जाय, तो इस्मे कोह भी देव उपद्रव नहीं करेंगा-चतुर्मास के दिन ननदीक आ रहे ये राजाके मन्दिर तैयार होने में बहुत दिन लगने का संभष था वास्ते मंत्री का मन्दिर को शीघ्रतासे तय्यार करवाया नाय कि बह प्रतिष्ठा सूरिनी के करकमलोसे हो इसवास्ते विशाल संख्यामे मजुर लगाके महावीर प्रभुका मन्दिर इतना शीघ्रसासे तय्यार करवायाकि वह स्वल्पकालमें ही तैयार होने लगा कारण कि बहुतसा काम तो पहले से ही तय्यार था, इषर संघने अर्ज करी कि भगवान मन्दिर तो तय्यार होने में है पर इस्मे विराजमान होने योग्य मूत्तिकी जरूरत है ? सूरिजीने कहा धर्यता रखों मूर्ति तय्यार हो रही है। इधर क्या हो रहा
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(५०)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. है कि उहडमंत्रीकी एक गाय जो अमृत सदृश दुद्धकी देने वालिथी वह लुणाद्री पहाडी के पास एक कैरका झाड था वहां जाते ही उसके स्तनोंसे स्वयं ही दुद्ध वहां ज्ञर जाता यहां क्या था कि चमुंडादेषि गयाका दुद्ध और वैलुरेतिसे भगवान् महा. वीर प्रभुका बिंब (मूत्ति) तय्यार कर रहीथी पहला सरिजी से देवीने अर्ज भी करदी थी तदानुस्वार सूरितीने संघसे कहाथा की मूर्ति तय्यार हो रही है पर संघने पहला जैनमू. त्तिका दर्शन न किया था वास्ते दर्शन की बडी आतुरता थी. पर सूरिजीने इस वातका भेद संघको नहीं दीया. इधर गायका दुद्धके अभाव मंत्रीश्वरने गवालियाको पुच्छा तो उसने कहा में इस बातको नहीं जानता हु कि गायका दुद्ध कमति क्यो होता है मंत्रीश्वरने पुन: पुनः उपालंभ देनेसे एकदिन गवाल गायके पीछे पीच्छे गया तो हमेशोंकी माफीक दुद्धको झरता देख मंत्रीको सब हाल कहा. दूसरे दिन खुर उहरमंत्री वहां गया सब हाल देखा और विचार किया कि यहांपर कोह दैव योग्य होना चाहिये गायको दूर कर जमीन खोदी तो वह क्या देखता है कि शान्तमुद्रा पद्मासनयुक्त वीतराग की मति दीख पडी मंत्रीश्वरने दर्शन फरसन कर वहा आनंद मनाया कि मेरेसे तो मेरी गाय ही बडी भाग्यशालनी है कि अपना दुद्धसे भगवान् का पक्षाल करा रही है खेर मंत्रीश्वर नगरमे आया राना और अन्योन्य विद्धानेसे सब हाल कहा बस फिर देरी ही क्याथी बडे समरोह यानि गामा बामाके साथ संघ एकत्र हो सूरिजी महारानके पास आये और अर्ज करी कि भगवान् मापकी कृपासे हमारा अहोभाग्य है कि हमने भगवान् के विषका दर्शन कीया और अब आप भी पधारेकी भगवान् को नगर प्रवेश करावे यह सब संघ भग.
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महावीर मूर्तिका दर्शन.
( ५१ ) वान के दर्शनोका पिपासु हो रहा है इत्यादि ? सूरिजीने सोचा at fie तय्यार होनेमें अभी सातदिनकी देरी है परन्तु दर्शनके लिए आतुर हुवा संघके उत्साहको रोकना भी तो उचित नहीं है, भवितव्यता पर विचार कर सूरिजी अपने शिष्य समुदाय के साथ संघमे सामिल हो जहां भगवान की मूर्ति थी वहां जा कर जमीन से बिंव निकलवा कर नमस्कार पूर्वक हस्तीपरारूढ करवा के धामधूम पूर्वक भगवान्का नगर प्रवेश करवाया संघमे बडाही आनंद मंगल और घरघर उत्सव वधामणा हुवा कारण पहला उन लोगोंने दिसक और विकारी देवि देवतों की मूर्तियोको देखी थी पर आज भगवान् की शान्त मुद्रा निर्विकार किसी प्रकारकी चेष्टा रहित पद्मासन मूर्ति देख लोगों की जैनधर्मपर और भी दृढ श्रद्धा होगई । ऊहडमंत्रीका बनाया हुवा महावीर मन्दिरके एक विभागमे भगवान् को विराजमान किया. यहांपर एक विशेष बात यह हुई कि देविने मूर्तिको सर्वांग सुन्दर बनाना प्रारंभ कियाथा अगर सात दिन और देर कि गई होती तो देविकी मनसा मुताबीक कार्य हो जाता पर आतुरता करनेसे भगवान् के हृदय पर निंबुफल जीतनी गांठो ( स्तनाकार ) रह गई इससे देवि नाराज हुई पर सूरिजी साथमें थे वास्ते उसका कोई जोर न चला " भवितव्यता बलवान् है "
इधर आश्विन मासकि नौरात्री नजदीक आने लगी तब संघाग्रेसर लोगोने सूरिजी से अर्ज करी कि हे प्रभो ! आप तो हमे कहते हो कि वगरह अपराध किसी जीत्रोंको तकलीफ नहीं देना पर हमारे यहां चमुंडादेबि एसी निर्दय है कि इस नौरात्रोमे प्रत्येक घर से एकेक भैसा और प्रत्येक मनुष्यसे
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जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. पकेक बकारा कि बलि लेती है अगर एसा न किया जाय तो वह यहांतक उपद्रव करेगा की हमे हमारा जीवनमे भी शंसय है। " पुनराचार्यैः प्रोक्तं अहं रक्षां करिस्यामि " हे भव्यों तुम गबरावो मत में तुमारी रक्षा करूगा. जो सत्य ही देवि देव है वह मांस मदिरादि घृणित पदार्थ कभी नही इच्छेगे अगर कोई व्यान्तरादि देव कतूहल के मारे एसे करते ही होगे तो में उसे उपदेश करूगा है भद्रों यह देवि देवताओं का भक्ष नहीं है पर कितने ही पाखण्डि लोग मांस भक्षण के हेतु देवि देवताओके नामसे एसी अत्याचार प्रवृति को चला दी है जिस पदार्थोसे अच्छे मनुष्यों को भी घृणा होती है तो वह देव देवि कैसे स्वीकार करेगे अगर तुम को धैर्य नहीं हो तो लडूड चुरमा लापसी खाजा नालियेर गुलरावादि शुद्ध मुगंधित पदार्थोसे देवि की पूजा कर सकते हो इत्यादि उपदेश अषण कर संघने अपने अपने घरों में वह ही शुद्ध पदार्थ तय्यार करवा के सूरिजीसे अर्ज करो कि आप हमारे साथ मे चलो कारण हम को देवि का घडा भारा भय है इस पर सूरिजी भी अपने शिष्य मण्डलसे संघ के साथ देवि के मनदिर मे गये. गृहस्थ लोगोंने वह पूजापा नैवेय वगैरह देवि के आगे रखा जिन को देख देवि एकदम कोपायमान हो गइ इधर दृष्टिपात्त किया तो सूरिजी दीख पडे वस देवि का गुस्सा मन का मन मे ही रह गया तथापि देवि, सूरिजी से कहने लगी वहां महारान आपने ठीक किया मेने ही आप को विनंति कर यहां पर रखा और मेरे ही पेट पर आपने पग दीया क्या कलिकाल कि छाया आप जैसे महात्माओ पर ही पड गई है मेने पहले ही आपसे
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देबिको प्रतिबोध.
(५३) अर्ज करी थी कि आप राजा प्रज्या को जैनी तो बनाते हो पर मेरे कडडका मरडका मत्त छोडाना ? पर आपने तो ठोक ही क्या इत्यादि देवि का वचना सुन सूरिजी महाराजने कहा देवि यह नलयेर तो तेरा कडडका है और गुलराव तेरा मरडका है इस को स्वीकार क्यो नहीं करती हा भो देवि पूर्व जन्म में तो तुमने अच्छा सुकृत कीया बहुत जीवों को जीतब दान दीया तब तुमे देव योनि मीली है पर यहां पर यह घोर हिंसा करवा के तुम किस योनि में जाना चाहाती हो हे देवि अच्छा मनुष्य भी कुतूहल के लिये निरर्थक हिंसा करना नहीं चाहाता है तो तुम ज्ञानवान् देवि होके फक्त कतूहल के मारो हजारो जीवो के प्राणो पर छुरा चलवाना क्यों पसंद कीया है इत्यादि उपदेश देने पर देवि उस बख्त तो शान्त हो गई पर गृहस्य वर्ग घबरा रहे थे सहिनीने उन पर वासक्षेप कर विसर्जन कोये पर देवि सर्वता शान्त नहीं हुई थी. अज्ञान के वस हो यह रहा देख रही थी कि कभी आचार्यश्री प्रमाद में हो तो में मेरा बदला लु । " एकदा छलं लब्ध्या देव्या आचार्यस्य कालवेलायां किंचिंत् स्वद्यायादि रहितस्य वामनैत्रे भूराधिष्टिता वेदना जातः " भाचार्यश्री सदैव अप्रमत्तपने ही रहते थे पर एका अकाल में स्वद्याय ध्यान रहित होने से देविने आपश्री के वामा नत्र में वेदना कर दी वह भी एसी कि कायर मनुष्य उसे सहन भी नहीं कर सके पर सूरिनी को तो उस की परवा ही नहीं थी उन्होने तो अपने दुष्ट कर्मो का देना चुकाने को दुकान ही खोल रखी थी तत्पश्चात् देवि अपना असली रूप कर आचार्य श्री के पास आ के कहने लगी कि भो आचार्य में चमुंडा
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( ५४ )
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा.
देवि हूँ आपने मेरा करडका मरडका छोडाया जिस्का यह फल है सूरिजीने कहा कि इस फल से तो मुझे नुकशांन नहीं फायदा है पर तँ तेरा दील में विचार कर कि उस करडका मरडका का भविष्य में तुमे क्या फल मिलेगा पूर्वीपार्जित पुन्य से तो यहां देव योनि पाई है पर पशु हिंसा करवा के तीर्थच हो नरक में जाना पडेगा. उस समय चक्रेश्वरी आदि देषियों सूरिजी के दर्शनार्थी आइ थी चमुंडा और सूरिजी का संवाद देख चमुंडा को एसे उच्च स्वर से ललकारी देवि लज्जित हो अपनि वेदना को वापिस खांच सूरिजी के चरणाविंद में बन्दन नमस्कार कर अपने अज्ञानता से किया हुषा अपराध की माफि मांगी वहां पर बहुत से लोग एकत्र हो गये थे श्री सच्चिकां देवी सर्व लोक प्रत्यक्ष श्री रत्नप्रभाचार्यैः प्रतिबोधिता " श्री उपकेशपुरस्था श्री महावीर भक्ता कृता सम्यक्त्व धरिणी संजाता आस्तां मांसं कुशममयि रक्तं नेच्छति कुमारिका शरीरे अवतीर्ण सती इति वक्ति भो मम सेवका अत्र उपकेशस्थं स्वयंभू महावीर. बिंबं पूजयति श्री रत्नप्रभाचार्यै उपसेविर्ति भगवान् शिष्य प्रशिष्य व सेवति तस्याहं तोषं गच्छति । तस्य दुरितं दलयामि यस्य पूजा चित्ते धारयामि " सब लोगों के सामने सचिका देवि " अर्थात् चमुंडा देखिने पहला सूरिजी को वचन दीया था कि आप के यहां विराजनासे बहुत उपकार होगा वह वचन सत्य कर बताने से सूरिजीने चमुंडा का नाम सच्चिका रखा था " को आचार्य रत्नप्रभसूरिने प्रतिबोध दे भगवान् महावीर के मन्दिर की अधिष्टायिक स्थापन करी तब से देषि मांस मदिर छोड
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देविकी प्रतिज्ञा.
(५५)
सम्यक्त्व धारिणि हुई मांस तो क्या पर देवीने एसी प्रतिझा कर कह दिया कि आज से मेरे रक्त वर्ण का पुष्प तक भी नहीं छडेगा. और मेरे भक्त जो उपकेशपुर में महावीर के बिंब की पूजा करते रेहगें आचार्य रत्नप्रभसूरि और इन की संतान की सेवा उपासन करते रहेगें उन के दुःख संकट को में निवारण करूगी और विशेष काम पडने पर मुझे नो आराधन करेगा तो में कुमारी कन्या के शरीर मे अवतीर्ण हो आउगी इत्यादि देवी के बचन सुन और भी " श्री सच्चिका देव्या वचनात् क्रमेण श्रुत्व प्रचुरा जनाः श्रावकत्वं प्रतिपन्नःः " बहुत से लोग जैन धर्म को स्वीकार धावक बन गये और जैन धर्म का बडा भारी उद्योत हुवा.
उपकेश पट्टन में भगवान् महावीर प्रभु का सिखर बद्ध मंदिर तय्यार हो गया तत्पश्चात् प्रतिष्टा का मुहूर्त मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमि गुरुवार को निश्चित हुवा सब सामग्री तैयार हो रहीथी इधर रत्नप्रभसूरि की आज्ञा से ४६५ मुनि विहार किया था उन से कनकप्रभादि कितनेक मुनि कोरंटपुर ( कोल्ला पट्टन ) में चतुर्मास किया था आपश्री के उपदेश से वहां के भावक वर्गने भगवान् महावीर का नवीन मन्दिर बनवाया जिस्के प्रतिष्ठा का महुर्त भी मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमि का था तब कोरंट संघ एकत्र हो आचार्य रत्नप्रभसूरि को आमन्त्रण करने को आये “ तेनावसरे कोरंटकस्य श्राद्धानां आह्वानं आगतं " अर्ज करने पर सूरिनीने कहा कि इस टेम पर यहां भी प्रतिष्टा है वास्ते तुम वहां पर रहे हुवें कनकप्रभादि मुनियों से प्रतिष्ठा करवा लेना. इसपर कोरट
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(५६)
जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. संघ दिलगीर हो कहा कि भगवान् हम आपके गुरुमहाराज स्वयंप्रभसूरि के प्रतिबोधित भावक है और उपकेश पुर के श्रावक आपके प्रतिबोधित है वास्ते इन पर आपका राग है खेर आपकी मरजी इसपर आचार्यश्रीने कहा" गुरुणा कथितं मुहूर्त बेलायां गच्छामि " श्रावको तुम अपना कार्य करो में मुहूर्तपर आ जाउगा, श्रावक जयध्वनि के साथ वन्दना कर विसर्जन हुवे इधर उपकेशपुर में प्रतिष्टा महोत्सव बडे ही धामधूम से हो गया पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि से धर्म की बडा भारी उन्नति हुइ । आचार्यश्रीने “निजरूपेण उपकशे प्रतिष्ठा कृता वेक्रयरूपेण कोरंट के प्रतिष्ठाकृता श्राद्धैः द्रव्यव्यय कृतः " यहतो पहला से ही पढ़ चुके है कि आचार्य रत्नप्रभसूरि अनेक विद्याओं के पारगामी थे आप निज रूपसे तो उपकेशपुर मे और वैक्रय रुप से कोरंटपुर में प्रतिष्टा एक ही मुहूर्त में करवादी उन दोनो प्रतिष्टा महोत्सव में श्रावकोने वहुत द्रव्य खरच किया था तत्पश्चात् कोरंट संघ को यह खबर हुई कि आचार्य रत्नप्रभसूरि निज रूपसे उपकेशपूर प्रतिष्टा कराइ और यह तो वैक्रयरूपसे आये थे इसपर संघ नाराज हो कनकप्रभ मुनि को उस की इच्छा के न होने पर भी आचार्य पद से भूषीत कर आचार्य बना दीया इसका फल यह हुवा कि उधर श्रीमाल पोरवाड लोगों का आचार्य कनकप्रभसूरि और इधर उपकेश वंश के श्रावको के आचार्य रत्नप्रभसूरि हो गये इन दोनो नगरो के नामसे दो साखा हो गह उन साखाओ के नाम से ही उपकेश गच्छऔर कोरंटगच्छ कि स्थापना हुईथी वह आज पर्यन्त मोजुद है इन दोनों मन्दिरोका प्रतिष्टा का समय में निम्न लिखित श्लोक पट्टापलि मे है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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महावीर मन्दिर कि प्रतिष्टा. (५७) सप्तत्या (७०) वत्सराणं चरम बिनपतेर्मुक्त जातस्य वर्षे. पंचभ्यां शुक्ल पक्षे सुर गुरु दिवसे ब्राह्मण सन्मुहूर्ते । रत्नाचार्यः सकल गुणयुक्तैः सर्व संघानुज्ञातः श्रीमवीरस्य बिंबे भव शत मथने निर्मितेयं प्रतिष्टाः ।। उपकेशे च कोरंटे तूल्य श्रीवीरबिंबयोः प्रतिष्टा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः __ कोरंट गच्छ में भी बडे बडे विद्वानाचार्य हो गये थे जिनके कर कमलो से कराइ हुइ हजारो प्रतिष्टा का लेख मीलते है वर्तमान शिलालेखों मे भी कोरंट गच्छाचार्यों के बहुत शिलालेख इस समय मोजुद है वह मुद्रित भी हो चुके है समय की बलिहारी है जिस गच्छ मे हजारो की संख्या मे मुनिगण भूमिपर विहार करते थे वहां आज एक भी नहीं वि. सं. १९१४ तक कोरंट गच्छ के श्री अनीतसिंहसूरि नाम के श्री पूज्य थे वह बीकानर भी आये थे लंगोट के बडे ही सचे और भारी चमत्कारी थे अब तो सिर्फ कोरंट गच्छीय महात्माओं कि पोसालों रह गई है और वह कोरंट गच्छ के श्रावकों की वंसावलियों लिखते है तद्यपि जैन समान कोरंट कि आभारी है और उस गच्छ का नाम आज भी अमर है ।।। ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेश पटन मे भगवान् महावीर प्रभु के मंदीर की प्रतिष्टा करने के बाद कुच्छ रोज वहां पर विराजमान रहै श्रावक वर्ग को पूना प्रभावना स्वामिवात्सल्य सामायिक प्रतिक्रमण व्रत प्रत्याख्यानादि सब क्रिया प्रवृतियों का अभ्यास करवा दीया था.
आचार्यरत्नप्रभसरिने यह सुना था कि मेरे वैक्रय रूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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( ५८ )
जैन जाति महोदय. प्र - तीसरा.
से कोरंटपुर जाना से वहां का संघ में मेरे प्रति अभाव हो कनकप्रभ को आचार्य पद स्थापन कीया है वास्ते पहला मुजे वहां जाके उनको शान्त करना जरूरी है कारण गृहक्लेश शासन सेवा मे बाधाए डालनेवाला होता है इस विचार से आप उपकेशपुर से विहार कर सिधे ही कोरंट पुर पधारे आचार्य कनकप्रभसूरि को खबर होनेपर वह बहुत दूर तक संघ को ले कर सामने आये बडै ही महोत्सवपूर्वक नगर प्रवेश कीया भगवान् महावीर की यात्रा करो तत्पश्चात् दोनों आचार्य एक पाट पर विराजमान हो देशनादि और प्रतिष्टापर आप वैक्रय रूपसे आने का कारण बतलाया कि तुमतो हमारे गुरु महाराज के प्रतिबोधित पुरांणे धावक श्रद्धा संपन्न हो पर वहां के श्रावक बिलकुल नये थे जैन धर्मपर उन की श्रद्धामजबुत करणिथी इत्यादि मधुर बचनों से कोरंट संघ को संतुष्ट कर दीया और आपने कनकप्रभसूरि को आचार्य पद दीया यह भी ठीक ही किया है कारण प्रत्येक प्रान्त में पकेक योग्याचार्य होने की इस जमाना में जरूरी है इतने मे कनकप्रभसूरिने अर्ज करी कि हे भगवान्। में तो इस कार्य में खुशी नहीं था पर यहाँ के संघमे अधैर्यता देख संघ वचन को अनेच्छा स्वीकार करना पडा था आप तो हमारे गुरु है यह आचार्यपद आपभी के चरणकमलों मे अर्पण है. इसपर आचार्य रत्नप्रभसूरि संघ समक्ष कनकप्रभसूरि पर वासक्षेप डाल के आचार्य पद कि विशेषता करदी इस एकदीली को देख संघमे बडा आनंद मंगल छा गया बाद जयध्वनी के साथ सभा विसर्जन हुई बाद रत्नप्रभसूरि कनकप्रभसूरिने अपने योग्य मुनिवरों से कहा की भविष्यकाल महा भयंकर आवेगा जैन धर्म का कठिन नियम संसार लुब्ध जीवों को पालन करना मुश्किल.
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श्राचार्य कनकप्रभसूरि.
( ५९ )
होगा वास्ते जातिधर्म बना देना बहुत लाभकारी होगा इस वास्ते सब सांधुओ के कम्मर कस के अन्य लोगों को प्रतिबोध दे दे कर इस जातियों की वृद्धि करना बहुत जरूरी बात है इत्यादि वार्तालाप के बाद कनकप्रभसुरि की तो उपकेशपट्टन की तरफ विहार करने कि आज्ञा दी कनकप्रभसूरिने उपकेशपट्टन पधार के उपलदेवराजा के बनाये हुवे पार्श्वनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाइ इत्यादि अनेक शुभ कार्य्य आपके उपदेश से हुवे और सूरिजीने आप उसी प्रान्त मे व अन्य प्रान्तो मे विहार करने का निर्णय कीया । रत्नप्रभ सूरिने फिर अपने १४ वर्ष के जीवन मे हजारो लाखो नये जैन बनाये जिस्मे पोरवाडो से संबन्ध रखनेवालों को पोरवाडो मे मीला दीया श्रीमालो से सम्बन्ध रखनेवालो को श्रीमालो मे और उपकेश वंस से तालुक रखनेवालों को उपकेश वंश मे मीलाते गये उपकेशपुर के गौत्रो के सिवाय (१) चरड गोत्र ( २ ) सुघड गोत्र ( ३ ) लुग गोत्र ( ४ ) गटिया गौत्र एवं चार गौत्रोंकी और स्थापना करी आपश्रींने अपने करकमलोसे हजारो जैन मूर्तियोकी प्रतिष्टा और २१ वार श्रीसिद्धगिरि का संघ तथा अन्यभो शासनसेवा और धर्म का उद्योत कीया आपश्रीने करीबन १० लक्ष नये जैन बनाये थे. पट्टावलिमें लिखा है कि देविने महाविदह क्षेत्रमें श्री सीमंधर स्वामिसे निर्णय कया था कि रत्नप्रभसूरिका नाम चौरासी चौवीसी मे रहेगा एक भवकर मोक्ष जावेगा इत्यादि... जैन कोम आचार्यश्री के उपकारकी पूर्ण ऋणि है आपश्रीके नाम मात्र से दुनियों का भला होता है पर खेद इस बात का है कि कीतनेक कृतघ्नी एसे अक्ष ओसवाल है कि कुमति के कदागृहमें पडके एसे महान् उपकारी गुरुवर्य के नामतक को भुल बैठे है ।
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(६०) जैन जातिमहोदय. प्र-तीसरा.
यह तो पहले पढ़ चुके है कि आचार्य श्री के पास वीरधवल नामके उपाध्याय अच्छे विद्वान थे एक समय रानग्रह नगरमें किसी यक्षने घडा भारी उपद्रव मचा रखाथा निसके जरिय जैनतो क्यापर सब नागरिक लोक दुःखी हो रहेथे बहुत उपचार किया पर उपद्रव शान्त नहीं हुवा इसपर संघने रत्नप्रभसूरिकि तलास कराइ तो आपका विहार मरूभूमिकी तरफ हो रहाथा तब राजगृहका संघ आचार्यश्री के पास आया और वहांका सब हाल अर्जकर उधर पधारने की विनंति करी सूरिजीने अपनी सलेखनाध्यायन आदि के कारणों से आपने अपने शिष्य वीरधवल उपाध्यायको आज्ञा दी कि हमारा वासक्षेप लेके वहां जावों और संघका संकट को दूर करो तदानुसार उपाध्यायजी क्रमशः, विहार कर राजगृह पहुँचे रात्रीमे आपने स्मशानभूमि मे ध्यान लगा दीया रात्रीमे यक्ष आया पहला तो उपाध्यायजीसे दूर रह बहुतसे उपसर्गका ढोंग वत. लाया पर आपके तपतेजसे व उपदेश से वह शान्त हो उपाध्यायजीसे अर्ज करीं कि इस नगरी के लोगोंने मेरी बहुत आशातना करी है उपाध्याय जीने उसे उपदेशद्वारा शान्त करदीया पर उसने कहा कि में आपकी आज्ञा सिरोद्धार करता हु पर मेरा नाम कुच्छ न कुच्छ रहना चाहिये. उपाध्याय जीने स्वीकार करलिया वस । सब उपद्रव शान्त हो गया संघमे और नगरमे आनंद मंगल और जैनधर्म की नयध्वनि होने लग गई उपाध्यायजीने कीतनेहो काल तो उसी प्रान्तमे विहार कर पवित्र तीर्थोकी यात्रा करी पुनः सूरिजी महारानकि सेवामे आये और वहाँका सब हाल कह सुनाया यक्ष का नाम रखने के लिये वीरधवल उपाध्यायको अपने पद पर आचार्यपद स्थापन कर उसका नाम यक्षदेवसूरिरखदीया तत्पश्चात् आचार्य रत्नप्रम
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आचार्यश्री का स्वर्गवास.
(६१) सरि सलेखना करते हुवे पवित्रतीर्थ सिद्धाचल पर पधार गये वहां एक मासका अनसन कर समाधि पूर्वक नमस्कार महामंत्र का ध्यान करते हुवे नाशमान शरीर का त्यागकर आप बारहवे स्वर्गमें जाके विराजमान होगये जिस समय आचार्य श्री सिद्धाचलपर अनसन कीया था उसरोजसे अन्तिम तक करीबन ५००००० श्रावक श्राविका सिवाय विद्याधर और अनेक देषि देवता वहां उपस्थित थे आपश्रीका अग्निसंस्कार होने के बाद अस्थि और रक्षा भस्मी मनुष्योंने पवित्र समझ आपश्रीकी स्मृति के लिये ले गयेथे आपके संस्कार के स्थानपर एक बड़ा भारी विशाल स्थुभभी श्री संघने कराया था जिस्मे लाखों द्रव्य संघने खरच कीयाथा पर कालके प्रभावसे इस समय वह स्थुम नहीं है तो भी आपश्रीकी स्मृतिके चिन्ह आजभी वहां मोजुद है विमलवसीमे आपश्री के चरण पादुका अभी भी है इस रत्नप्रभसूरि रूप रत्न खोदनेसे उस समय संघका महान् दुःख हुबाथा भविष्यका आधार आचार्य यक्षदेवसूरि पर रख पवित्र गिरिराजकी यात्रा कर सब लोग वहांसे विदाहो आचार्य श्री यक्षदेवसूरिके साथ में यात्रा करते हुवे अपने अपने नगर गये और आचार्य यक्षदेवसूरि अपने पूर्वजोके बनाये हुवे जैन जातिको उप देशरूपी अमृतधारा से पोषण करते हुवे फीरभी नये जैन बनाते हुवे उसमे वृद्धि करने लगे ॐ शान्ति यह भगवान पार्श्वनाथका छठ्ठा पाट आचार्य रत्नप्रभसूरि अपनी चौरासी वर्षकी आयुष्य पूर्ण कर वीरात् चौरासी वर्षे निर्वाण हुवे यह महा प्रभा विक आचार्य हुचे इति ।
-*OOK
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भगवान् पार्श्वनाथके पाटानुपाट.
१ गणधर श्री शुभदत्ताचार्य.
२ आचार्य हरिदत्तसूरि. ३ आचार्य आर्य्यसमुद्रसूरि.
४ आचार्य केशीश्रमण.
५. आचार्य स्वयंप्रभसूरि. ६ आचार्य रत्नप्रभसूरि.
इन है चायका संक्षिप्त जीवन
गया है शेष आचार्योका जीवन आगे
यहां पर तो केवल शुभ नामावली ही
७ श्रीयक्ष देवसूरिः ८, ककसूरिः
"
९, देवगुप्तसूरिः
१०, सिद्धसूरिः
११, रत्नप्रभसूरिः
१२,, यक्ष देवसूरिः
१३, ककसूरि :
१४, देव गुप्त सूरिः
उपरकी पट्टावली में श्रा प्रकरण में लिखा जायेंगे
दिजाती है ।
१७, यक्षदेवसूरिः
१८, कक्कसूरिः
१९, देवगुप्तसूरिः
२०,, सिद्धसूरिः
२१,, रत्नप्रभसूरिः
२२,, यक्षदेवसूरिः
१५, सिद्धसूरिः
१६, रत्नप्रभसूरि :
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२३, ककसूरिः
२४, देवगुप्तसूरिः
२५, सिद्धसूरिः
२६,, रत्नप्रभसूरिः
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जैन जाति महोदय प्र. तीसरा. (६३) २७ ,, यक्षदेवसूरिः
३२ ,, यक्षदेवसूरिः २८ , ककसूरिः
३३ ,, ककसूरिः ,, देवगुप्तसूरिः ३४ , देव गुप्त सूरिः ३० ,, सिद्धसूरिः
३५ , सिद्धसूरिः ३१, रत्नप्रभसरिः
३६, ककसूरिः ___* इन प्राचार्यके बाद श्रीरत्नप्रभसूरिः और यक्षदेवसरि इन दोनों नामोंको भण्डार कर शेष तीन नामसेही परम्परा चली है। ३७ , देवगुप्तसूरिः
५१ , ककसूरिः ३८ ,, सिद्धसूरिः
५२ ,, देवगुप्तसूरिः ३९, कसूरिः
५३ ,, सिद्धसूरिः ४०, देवगुप्तसूरिः
५४ ,, ककसूरिः ४१ , सिद्धसूरिः
५५ ,, देवगुप्तसूरिः ४२ , ककसूरिः
५६ ,, सिद्धसूरिः ४३ , देवगुप्तसूरिः
५७ ,, कक्कसूरिः ४४ :, सिद्धसूरिः
५८, देवगुप्त सूरिः ४५ ,, ककसूरिः
५९ ,, सिद्धसूरिः ४६ ,, देवगुप्तसूरिः
६०, ककसूरिः ४७ ,, सिद्धसूरिः
६१ ,, देवगुप्तरिः ५८ , ककसरिः
६२ , सिद्धसूरिः ४९ , देवगुप्तसूरिः । ६३ , ककसूरिः ५०, सिद्धसरिः . ६४, देवगुप्तसूरिः
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(६४) ६५ ,, सिद्धसूरिः ६६ , ककसूरिः ६७ ,, देवगुप्तसूरिः
, सिद्धसूरिः ६९ ,, कक्कसूरिः ७० , देवगुप्तसूरिः ७१ ,, सिद्धसूरिः ७२ , ककसूरिः ७३ ,, देवगुप्तसूरिः ७४, सिद्धसूरिः
जैन जाति महोदय प्र. तीसरा.
७५ ,, कक्कसूरिः ७६ ,, देवगुप्तसूरिः ७७, सिद्धसूरिः ७८ ,, कक्कसूरिः ७९ ,, देवगुप्तसूरिः ८०, सिद्धसूरिः ८१ ,, कक्कसूरिः
, देवगुप्तसूरिः ८३ ,, सिद्धसूरिः
८४
" ... ... ... ... ... ...
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________________ खुश खबर. श्रीरत्नप्रभाकर झानपुष्पमाला-ऑफीस-फलोदीसे अाज पर्यन्त ज्ञानके 16 पुष्प छप चुके हैं. जिसमें जैन सिद्धांतों का तत्वज्ञान, आत्मझान, अध्यात्मज्ञान, औपदेशिक ज्ञान और मुनिधर्म व श्रावकधमे संबन्धी क्रियाओं का विधि विधान तथा जैन मन्दिर मूर्ति और दयादानके विषय बहूत ही सुगमतापूर्वक जनता लाभ उठा सकें इस ढंगसे संकलित किया गया है। मारवाड के अंदर जैन साहित्य का हिन्दीमें प्रचार करनेमें इस संस्थाने स्वल्प समयमें ज्ञान का बहूत प्रचार कीया है जो कि अाज तक करीवन् 2010000 पुस्तकें और 72000 इस्तिहार द्वारा जनता की अच्छी सेवा की ओर कर रही है ऐसी संस्थाओं की कदर याने सहायता करना प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य है। कमसे कम एकेक कॉपी मंगवाके अवश्य पढीए / सूचिपत्र मंगवाइए। किमधिकम् . पुस्तक मिलने का पत्ता : श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला. फलोदी-(मारवाड) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com