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शास्त्रार्थका फल.
(४९) मिथ्यात्व मार्ग लुप्त होता गया. राजा उपलदेव आदि सूरिनी कि हमेशो सेवा भक्ति करते हुधे व्याख्यान सुन रहे थे सूरिजीने तरवमिमंसा तत्वसार मत्त परिक्षादि केह ग्रन्थ भी निर्माण किये थे एक समय राजाने पुच्छा कि भगवान् यहां पाखंण्डियोका चिरकालसे परिचय है स्यात् आपके पधार जाने के बाद फिरभी इनका दाव न लग जावे वास्ते आप एसा प्रबन्ध करावे की साधारण जनताकि श्रद्धा जैनधर्मपर मजबुत हो जावे ? सूरिनीने फरमाया कि इस के लिये दो रहस्ता है (१) जनतत्वोंका ज्ञान होना ( २ ) जैन मन्दिरोंका निर्माण होना । राजाने दोनों बातों को स्वीकार कर एक तरफ तो ज्ञानाभ्यास वडाना सरू कीया दूसरी तरफ लुणाद्री पहाडी के पास की पहाडो पर एक मन्दिर बनाना प्रारंभ करदीया । उसी नगरमें कहड मंत्री पहले से ही एक नारायणका मन्दिर बना रहा था पर वह दिनको बनावे और रात्रिमें पुन: गिरजावे इससे तंगहो सूरिनीसे इसका कारण पुच्छा तो सूरिजीने कहा कि अगर यह मन्दिर भगवान महावीर के नाम से बनाया जाय, तो इस्मे कोह भी देव उपद्रव नहीं करेंगा-चतुर्मास के दिन ननदीक आ रहे ये राजाके मन्दिर तैयार होने में बहुत दिन लगने का संभष था वास्ते मंत्री का मन्दिर को शीघ्रतासे तय्यार करवाया नाय कि बह प्रतिष्ठा सूरिनी के करकमलोसे हो इसवास्ते विशाल संख्यामे मजुर लगाके महावीर प्रभुका मन्दिर इतना शीघ्रसासे तय्यार करवायाकि वह स्वल्पकालमें ही तैयार होने लगा कारण कि बहुतसा काम तो पहले से ही तय्यार था, इषर संघने अर्ज करी कि भगवान मन्दिर तो तय्यार होने में है पर इस्मे विराजमान होने योग्य मूत्तिकी जरूरत है ? सूरिजीने कहा धर्यता रखों मूर्ति तय्यार हो रही है। इधर क्या हो रहा
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