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जैन जाति महोदय. प्र - तीसरा.
लिखा है कि जयसेनराजाने अपने जीवन मे ३०० नयामन्दिर ६४ वार तीर्थंका संघ निकाला और कुँवे तलाव वावडीयों वगरह कराई विशेष आपका लक्ष स्वाधर्मियों की तरफ था जयसेनराजा के दो राणियों थी बडी का मीमसेन छोटी का चन्द्रसेन जिसमे भीमसेन तो अपनि मातके गुरु ब्राह्मणों के परिचय से शिवलिंगोपासकथा और चन्द्रसेन परम जैनोपासक था. दोनो भाइयों में कभी कभी धर्मबाद हुवा करता था. कभी कभी तो वह धर्मवाद इतना जोर पकड़ लेता था की एक दूसरा का अपमान करने में भी पीच्छा नहीं हटते. थे ?
यह हाल राजा जयसेन तक पहुंचने पर राजाको बडा भारी रंज हुवा भविष्य के लिये राजा विचार में पडगया कि भीमसेन बडा है पर इसको राज देदीया जावे तो यह धम्मन्धिताके मारा और ब्राह्मणोकी पक्षपातमे पड जैन धर्म्म ओर जैनोपासकोका अवश्य अपमान करेंगा ? अगर चंद्रसेनकों राज देदीया नायतो राजमे अवश्य विग्रह पैदा होगा इस विचारसागरमें गोताखाता हुवा राजाको एक भी रहस्ता नहीं मीला पर काल तो अपना कार्य कीया ही करता है राजाकी चित्तवृतिको देख एक दिन चन्द्रसेनने पुच्छा कि पिताजी आपका दीलमें क्या है इसपर राजाने सब हाल कहा चन्द्रसेनने नम्रतापूर्वक मधुर वचनोसे कहा पितानी आपतो ज्ञानी है आप जानते है की सर्व नीव कम्र्माधिन है जो जो ज्ञानियोने देखा है अर्थात् भविव्यता होगा सोही होगा आप तो अपने दिलमें शान्ति रखो जैन धर्म का यह ही सार है मेरी तरफ से आप खातरी रखिये कि मेरी नशो में आपका खून रहेगा वहां तक तो में तन मन धनसे जैन धर्म की सेवा करूगा । इससे राजा जयसेन को परम संतोष हुषा तद्यपि अपनि अन्तिमा
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