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महावीर मन्दिर कि प्रतिष्टा. (५७) सप्तत्या (७०) वत्सराणं चरम बिनपतेर्मुक्त जातस्य वर्षे. पंचभ्यां शुक्ल पक्षे सुर गुरु दिवसे ब्राह्मण सन्मुहूर्ते । रत्नाचार्यः सकल गुणयुक्तैः सर्व संघानुज्ञातः श्रीमवीरस्य बिंबे भव शत मथने निर्मितेयं प्रतिष्टाः ।। उपकेशे च कोरंटे तूल्य श्रीवीरबिंबयोः प्रतिष्टा निर्मिता शक्त्या श्रीरत्नप्रभसूरिभिः __ कोरंट गच्छ में भी बडे बडे विद्वानाचार्य हो गये थे जिनके कर कमलो से कराइ हुइ हजारो प्रतिष्टा का लेख मीलते है वर्तमान शिलालेखों मे भी कोरंट गच्छाचार्यों के बहुत शिलालेख इस समय मोजुद है वह मुद्रित भी हो चुके है समय की बलिहारी है जिस गच्छ मे हजारो की संख्या मे मुनिगण भूमिपर विहार करते थे वहां आज एक भी नहीं वि. सं. १९१४ तक कोरंट गच्छ के श्री अनीतसिंहसूरि नाम के श्री पूज्य थे वह बीकानर भी आये थे लंगोट के बडे ही सचे और भारी चमत्कारी थे अब तो सिर्फ कोरंट गच्छीय महात्माओं कि पोसालों रह गई है और वह कोरंट गच्छ के श्रावकों की वंसावलियों लिखते है तद्यपि जैन समान कोरंट कि आभारी है और उस गच्छ का नाम आज भी अमर है ।।। ___ आचार्य रत्नप्रभसूरि उपकेश पटन मे भगवान् महावीर प्रभु के मंदीर की प्रतिष्टा करने के बाद कुच्छ रोज वहां पर विराजमान रहै श्रावक वर्ग को पूना प्रभावना स्वामिवात्सल्य सामायिक प्रतिक्रमण व्रत प्रत्याख्यानादि सब क्रिया प्रवृतियों का अभ्यास करवा दीया था.
आचार्यरत्नप्रभसरिने यह सुना था कि मेरे वैक्रय रूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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