Book Title: Jain Jatiyo ka Prachin Sachitra Itihas
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

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Page 19
________________ (१८) जैन जातिमहोदय. प्र-तीसरा. अगर पशुओ के मारनेसे रुधिरका कर्दम करनेसे ही स्वर्ग को चला जावेगा तब फिर नरक कौन जावेगा । हे राजन् एसा मिथ्या उपदेश देनेवाले गुरु और दयाहिना धर्म को दूरसे ही त्याग देना चाहिये कहा है की: " त्यजद्धमै दयाहीनं क्रियाहीनं गुरु स्त्यजेत् " हे राजन् ! आप पवित्र क्षत्री कुलमें उत्पन्न हुवे है पर. अत्रि धर्मसे अभी अज्ञात है देखिये क्षत्रीयोका क्या धर्म है " वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते, प्राणान्ते तृण भक्षणम् । तृणाहारा सदैवैते हन्यन्ते पशवाकथम् ॥ " भावार्थ कट्टर शत्रु प्राणान्त समय मुहमे तृण लेने पर क्षत्री उसको छोड देते है तो सदैव तृण भक्षण करनेवाले निरपराधि पशुओको मारना क्या आप जेसोको उचित है आपको पृथ्वीपर जनता न्यायाधिश मानते है तो एसे अबोले जानवारो पर आप के राजत्व कालमे एसा अन्याय होना क्या उचित है अर्थात् एसा हिंसामय मिथ्या पंथका त्यागकर इन पशुओंको जीवितदान दे इन गरीब अनाथ जीवोंकी आशीर्वाद लो और अनंत पुन्योपार्जन करो यह धर्म आप के इस लोक परलोकमे हित सुख और कल्याण का कारण होगा । हिंसा धर्मि उन यज्ञ कर्म करनेवालोने हिंसाकी पुष्टिमे बहुत दलिलों करी परंतु सूरिजीने शास्त्र या युक्तियो द्वारा उन क्रुतर्को का एसा प्रतिकार 'किया कि जिस्को श्रवणकर राजा और राजसभा तथा नागरिक लोगोको उन निष्ठुर यज्ञपर घृणा आने लगी और आचार्यश्री के फरमाये हुवे सत्य धर्म की रुची बढ गई राजा जयसेनने एकदम हुकम दे दीया कि सब पशुओंको छोडदो यज्ञ मण्डप को तोड फोड डालों और मेरा राजमें यह हुकम जाहिर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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