Book Title: Jain Jatiyo ka Prachin Sachitra Itihas
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ratna Prabhakar Gyan Pushpamala

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ (२४) जैन जाति महोदय. प्र-तीसरा. वात की आपश्री स्वल्प समयमे द्वादशांगी चौदापूर्वदि सर्वागम और अनेक विद्या के पारगामि हो गये वैसे ही धैर्य गांभिर्य शौर्य तर्कवितर्क स्याद्वादादि अनेक गुणोमें निपुण होगये. इधर आचार्य स्वयंप्रभसूरि शासनान्नति शासन सेवा कर अ. नेक भव्योंका उद्धार करते हुवे अपनि अन्तिमावस्था नान. रत्नचुडमुनिको योग्य जान. "गुरुणा स्वपदे स्थापितः श्रीमद्वीरजिनेश्वरात् द्वपंचाशत वर्षे (५२) आचार्यपद स्थापिताः पंचशत साधुसह धरां विचरन्ति" भगवान् वीरप्रभुके निर्वाणात् ५२ वर्षे रत्नचुडमुनिको आचार्यपदपर स्थापनकर ५०० मुनियोंके साथ भूमण्डलपर विहार करने की आचार्य स्वयंप्रभसूरिने आज्ञा दी. अन्य हजारों मुनि आचार्य रत्नप्रभरि की आज्ञासे अन्योन्य प्रान्तोंमे विहार करने लगे. आप सलेखना करते हुवे अन्तमे श्री सिद्धगिरिपर एक मासका अनसन कर स्वर्गमे अवतीर्ण हुवे इति पार्श्वनाथ भगावन् का पंचवापट्ट स्वयंप्रभसूरि हुवे । __आपश्रीका शासन में भगवान महावीर-गौतम-सौधर्म और जम्बुस्वामिका मोक्ष श्रीमाल पोरवाड जातियों कि स्था. पना और अनेक राजा महाराजाओ को धर्मबोध लाखो पशुओको जीवतदान और यज्ञमें हजारों पशुओका बलिदानरूप मिथ्यारूढियो का जडामूलसे नष्ट करदेना इत्यादि बहुत धर्म व देशोन्नति हुईथी. (६) आचार्य स्वयंप्रभसूरि के पट्ट प्रभाकर मिथ्यात्वान्धकार को नाश करने मे सूर्यसदृश आचार्य रत्नप्रभसूरि (रत्नचुड) हुवे इधर नम्बुस्वामिके पट्टपर प्रभवस्वामि भी महा प्रभाषिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66