Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 7
________________ श्रङ्क १२ ] पूज्यपाद वृक्षा दावाग्निनालग्नास्तत्सख्यं कुर्वते वने । आत्मारूढ तरोरग्निमागच्छन्तं न वेत्यसौ ९१ पालकाचार की जाँच । इस पद्यका पूर्वार्ध कुछ अशुद्ध जान पड़ता है और इसीसे मराठीमें इस पद्यका जो यह अर्थ किया गया है, कि "वनमें दावाग्निसे ग्रसे हुए वृक्ष उल दावाग्निले मित्रता करते हैं, परंतु जीव स्वयं जिल देहरूपी वृक्षपर चढ़ा हुआ है उसके पास आती हुई अग्निको नहीं जानता है," वह ठीक नहीं मालूम होता । श्राराकी प्रतियों में उक्त पूर्वार्धका शुद्ध रूप 'वृक्षा दावाग्निलग्ना ये तत्संख्यां कुरुते वने' इस प्रकार दिया है और इससे अर्थकी संगति भी ठीक बैठ जाती है - यह आशय निकल आता है कि, एक मनुष्य वनमें, जहाँ दावाग्नि फैली हुई है, वृक्षपर चढ़ा हुआ, उन दूसरे वृक्षोंकी गिनती कर रहा है जो दावाग्निसे ग्रस्त होते जाते हैं ( यह कह रहा है कि अमुक वृक्षको श्राग लगी, वह जला और वह गिरा ! ) परंतु स्वयं जिस वृक्षपर चढ़ा हुआ है, उसके पास श्राती हुई भागको नहीं देखता है । इस अलंकृत प्राशयका स्पष्टीकरण भी ग्रंथ अगले पद्य द्वारा किया गया है और इससे दोनों पद्योंका सम्बंध भी ठीक बैठ जाता है। आराकी इन दोनों प्रतियों में ग्रंथकी श्लोकसंख्या कुल ७५दी है, यद्यपि अंतके पद्यों पर जो नंबर पड़े हुए हैं उनसे वह ७६ मालूम होती है । परन्तु 'न वेत्तिमद्यपानतः ' इस एक पद्यपर लेखकोंकी गलती से दो नम्बर 13 और & पड़ गये हैं जिससे आगे के संख्यांकोंमें बराबर एक एक नम्बरकी वृद्धि होती चली गई है। देहलीवाली प्रतिमें भी इस पद्यपर भूल से दो नम्बर १३ और १४ डाले गये हैं और इसी लिये उसकी श्लोक Jain Education International ३६५ संख्या १०० होने पर भी वह १०१ मालूम होती है। छपी हुई प्रतिकी लोकसंख्या ६६ है । इस तरह भाराकी प्रतियों से छुपी हुई प्रतिमें २१ और देहलीवाली प्रतिमें २५ श्लोक बढ़े हुए हैं। ये सब बढ़े हुए श्लोक 'क्षेपक' हैं जो मूल ग्रंथकी भिन्न भिन्न प्रतियों में किसी तरह पर शामिल हो गये हैं और मूल ग्रंथके अंगभूत नहीं हैं। इन श्लोकोको निकालकर ग्रंथको पढ़नेसे उसका सिलसिला ठीक बैठ जाता है और वह बहुत कुछ सुसम्बद्ध मालूम होने लगता है। प्रत्युत् इसके इन श्लोकोको शामिल करके पढ़नेसे उसमें बहुत कुछ बेढंगापन आ जाता है और वह अनेक प्रकारकी गड़बड़ी तथा आपत्तियों से पूर्ण जँचने लगता है । इस बातका अनुभव सहृदय पाठक स्वयं ग्रंथ परसे कर सकते हैं । इन सब अनुसंधानोंके साथ ग्रंथको पढ़ने से ऐसा मालूम होता है कि छपी हुई प्रति जिस हस्तलिखित प्रति परसे तय्यार की गई है, उसमें तथा देहलीकी प्रतिमें जो पद्य बढ़े हुए हैं, उन्हें या तो किसी विद्वान्ने व्याख्या आदिके लिये अपनी प्रतिमें टिप्पणीके तौरपर लिख रक्खा था या ग्रंथकी किसी कानडी आदि टीकामें वे विषय समर्थनादिके लिये 'उक्तंच' आदि रूपसे दिये हुए थे; और ऐसी किसी प्रतिसे नकल करते हुए लेखकोने उन्हें मूल ग्रंथका ही एक अंग समझकर नकल कर डाला है । ऐसे ही किसी कारणले ये सब श्लोक अनेक प्रतियों में प्रक्षिप्त हुए जान पड़ते हैं। और इसलिये यह कहनेमें कोई संकोच नहीं हो सकता कि ये बढ़े हुए पद्य दूसरे अनेक ग्रंथोंके पद्य हैं। नमूने के तौर पर यहाँ दो एक पद्योंको उद्धृत करके बतलाया For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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