Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ -- अंक १२ ] पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच । पूर्वापरविरोधादिदूरं हिंसाद्यपासनम् । श्लोकोंकी इस न्यूनाधिकताके अतिप्रमाणद्वयसंवादि शास्त्रं सर्वज्ञ भावितम्॥७॥ रिक्त दोनों प्रतियों में कहीं कहीं पोंका गोपुच्छिकश्वेतवासा द्राविडो यापनीयकः। कुछ क्रमभेद भी पाया गया और वह निष्पिच्छश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः१० इस प्रकार हैनास्त्यर्हतः परो देवो धर्मो नास्ति दयां विना। देहलीवाली प्रतिमें, छपी हुई प्रतिके तपः परञ्च नैग्रन्थ्य मेतत्सम्यक्त्वलक्षणं ११ ५५ वे पद्यसे ठीक पहले उसी प्रतिका मांसाशिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु। ५७ वाँ पद्य, नम्बर ७० के श्लोकसे ठीक धर्मभावो न जीवेषु मधूदुम्बर सेविषु ॥१५॥ पहले नं०६८ का श्लोक, नं० ७३ वाले चित्ते भ्रान्तिर्जायते मद्यपानात् । . पद्यके अनन्तर । का पद्य, नं. ७ भ्रान्तं चित्तं पापचर्यामुपैति । वाले पद्यसे पहले नं. ७ का पद्य और पापंकृत्वा दुर्गतिं यान्ति मूढा नं.३२ के श्लोकके अनन्तर उसी प्रतिका स्तस्मान्मद्यं नैव देयं न पेयं ।।१६।।। अन्तिम श्लोक नं. १६ दिया है। इसी अणुव्रतानि पंचैव त्रिःप्रकारं गुणवतम् । तरह ६० नम्बरके पद्यके अनन्तर उसी शिक्षाव्रतादि चत्वारि इत्येतद्वादशात्मकम् २२ प्रतिके ६४ और ५ नम्बरवाले पद्य ___साथ ही यह भी मालूम हुआ कि क्रमशः दिये हैं। देहलीवाली प्रतिमें नीचे लिखे हुए दस । इस क्रमभेदके सिवाय दोनों प्रतियों श्लोक छपी हुई प्रतिसे अधिक हैं- के किसी किसी श्लोकमें परस्पर कुछ क्षेत्र वास्त धनं धान्यं द्विपदश्च चतुःपदम। पाठ-भेद भी उपलब्ध हुआ; परन्तु वह आसनं शयनं कुप्यं भांडं चेति बहिर्दश ॥७॥ कुछ विशेष महत्व नहीं रखता, इसलिये मृद्वी च द्रवसंपन्ना मातृयोनिसमानिका। उसे यहाँपर छोड़ा जाता है। सुखानां सुखिनःप्रोक्ता तत्पुण्यप्रेरितास्फुटम् । देहलीकी इस प्रतिसे संदेहकी कोई सज्जातिः सद्गृहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेन्द्रता। विशेष निवृत्ति न हो सकी, बल्कि कितने साम्राज्यं परमाईन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ५६ ही अंशोंमें उसे और भी ज्यादा पुष्टि मिली खजूरं पिंडखर्जूरं कादल्यं शर्करोपमान। और इसलिये ग्रन्थकी दूसरी हस्तलिखित मृदिक्ष्वादिके भोगांश्च मुंजते नात्रसंशयः ६० प्रतियोंके देखने की इच्छा बनी ही रही । ततः कुत्सित देवेषु जायन्ते पापपाकतः कितने ही भंडारोंको देखने का अवसर तुतः संसारगर्तासु पञ्चधा भ्रमणं सदा ॥६१॥ मिला और कितने ही भंडारोंकी सूचियाँ प्रतिग्रहोन्नतस्थानं पादक्षालनमर्चेनम् । भी नज़रसे गुजरी, परंतु उनमें हमें इस नमस्त्रिविधयुक्तेन एषणा नव पुण्ययुक् ॥६४॥ ग्रंथका दर्शन नहीं हुआ। अन्तको पिछले श्रुतिस्मृतिप्रसादेन तत्वज्ञानं प्रजायते । साल जब हम 'जैन सिद्धान्त भवन' ततो ध्यानं ततो ज्ञानं बंधमोक्षो भवेत्तत:७० का निरीक्षण करनेके लिये प्रारा गये और नामादिभिश्चतुर्भेदैर्जिनं संहितया पुनः। वहाँ करीब दो महीनेके ठहरना हुमा, यंत्रमणक्रमेणेव स्थापयित्वा जिनाकृतिम् ७६ तो उस वक्त भवनसे हम इस प्रथ थकी दो उपवासो विधातव्योगरूणां स्वस्य साक्षिकः। परानी प्रतियाँ कानडी अक्षरोंमें लिखी सोपवासो जिनरुक्तो न च देहस्यदंडनम् ८१ हुई उपलब्ध हुई-एक ताडपत्रोंपर और दिवसस्याष्टमेभागे मन्दीभूते दिवाकरे। दूसरी कागज़पर। इन प्रतियोंके साथ तं नक्तं प्राहुराचार्या न नक्तं रात्रिभोजनम् ९२ छपी हुई प्रतिका जो मिलान किया गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42