Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 36
________________ ३६४ जैनहितैषी। [भाग १५ । ग्यारह प्रतिमाओंसे इन पोंका सम्बन्ध है उनका करते हैं कि कर्तव्यानुरोधसे लिखे हुए हमारे इस नाम और क्रम-निर्देश भी यशस्तिलकमें कुछ नोटपर सोनीजी ज़रा भी असन्तुष्ट म होकर विलक्षण और विभिन्न ही पाया गया, तब हमने बहुत ही अँचे तुले होने चाहिए। ग्रंथमालाके मंत्री श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीको प्रायश्चित्तसंग्रह-उक्त ग्रन्थमालाका लिखा कि ने कृपाकर इस ग्रंथके संपादक पं० १८ वाँ पुष्प । पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर २०० । पन्नालालजी सोनीसे यह दर्याफ्त करके सूचित मूल्य, एक रुपया दो आने । करें कि ये सब पद्य अथवा इनमेंसे कोई पद्य यश यह अपने विषयका एक नया ही संग्रह प्रकास्तिलकमें कहाँपर पाये जाते हैं, और यदि यश शित हुआ है। इसमें १ छेदपिण्ड, २ छेदशास्त्र स्तिलकके नहीं तो सोमदेव सूरिके दूसरे कौनसे (छेदनवति), ३ प्रायश्रित्त समुच्चय चूलिका और ४ ग्रन्थके ये पद्य हैं। इसके उत्तरमें प्रेमीजीने सोनी प्रायश्चित्त (श्रावक-प्रायश्चित्त) ऐसे चार ग्रथोंका जीसे दर्याफ्त करके हमें जो सूचित किया है वह संग्रह किया गया है, जिनमेंसे पहले दो प्राकृत इस प्रकार है हैं और उनके साथ संस्कृत छाया नई तैयार ... "षट्माभृतमें जो श्लोक सोमदेवके कराकर लगाई गई है। दूसरे ग्रन्थके साथमें एक बतलाये गये हैं वे भूलसे बतलाये गये छोटीसी संस्कृत वृत्ति भी है परन्तु वह वृत्ति हैं। सोनीजीको ऐसा ही ख़याल था। तथा मूल ग्रन्थ दोनों किसके द्वारा निर्मित हुए हैं, उनसे मैंने पूछ लिया। 'एकादशके स्थाने यह कुछ मालूम नहीं होता । पहला ग्रन्थ इन्दुनन्दी भी यशस्तिलकका नहीं है। वह भीभूलहै" आचार्यका बनाया हुआ है, परन्तु कौनसे इन्दुइस उत्तरको पाकर हमें सोनीजीकी इस नन्दीका, यह अभी तक निश्चय नहीं हो सका। लापरवाही, असावधानी और निराधार लेखनी शेष दो ग्रन्थ संस्कृत हैं जिनमेंसे प्रायश्चित्त समुच्चय चलानेके साहसपर बहुत ही ज्यादा अफ़सोस चूलिका नामका ग्रन्थ श्रीगुरुदासाचार्यका बनाया हुआ ! पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि महज़ हुआ है और उसके साथ श्रीनन्दिगुरुकी अपने कोरे ख़यालके आधार पर, जिसका कहीं संस्कृत टीका भी है। चौथा ग्रन्थ 'अकलंक' से भी कछ समर्थन न होता हो और न जिसके नामके किसी भट्टारकका-संभवतः अकलंक सत्यकी पहले कोई जाँच की गई हो, इस प्रकार प्रतिष्ठापाठके कर्ताका-अथवा भट्टाकलंकदेवके का काम कर बैठना कितने बड़े दुःसाहस और नामसे किसी दूसरे ही व्यक्तिका बनाया हुआ हिमाकतकी बात है। हमारी रायमें यदि सोनीजी है और पहले तीनों ग्रन्थोंके कथनोंसे बहुत कुछ टीकाके इस समन्तभद्रवाले उल्लेखको ज्योंका विलक्षण तथा विभिन्न पाया जाता है। अपने त्यों अशुद्ध ही रहने देते और उसपर कोई नोट न साहित्य परसे यह ग्रन्थ भट्टारकी छापसे छपा देते तो वह इतना बुरा नहीं था जितना कि इस हुआ और बहुत कुछ अाधुनिक तथा असमीनोट देनेसे हो गया है। अब जब तक इस ग्रन्थकी चीन जान पड़ता है। इसमें प्रायश्चित्तके तौर पर ये मुद्रित प्रतियाँ रहेंगी और उनमें उक्त नोट तथा गौदान आदिका भी विधान किया गया है। पहले सूचीका वह उल्लेख कलमजद न किया जायगा तब तीन ग्रन्थोंका कथन आपसमें बहुत कुछ मिलता तक इन पद्योंके लिये बहुतसे विद्वानोंको बराबर जुलता है और कहीं कहीं पर किसी ग्रन्थमें कुछ यशस्तिलकके पत्र उलटने पड़ा करेंगे, और इस विशेष कथन भी पाया जाता है। दूसरे ग्रन्थका तरह पर कितने लोगोंका कितना समय एक कथन तीसरेके साथ अधिक सादृश्य रखता है। ख्वाहमख्वाहकी भूलके पीछे नष्ट होगा, इसका ये तीनों ही ग्रन्थ बहुत अच्छे और उपयोगी है अनुभव विज्ञ पाठक स्वयं कर सकते हैं । हम आशा और इनमें मुनि तथा श्रावक दोनोंके लिये प्राय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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