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३६२ जैनहितैषी।
[भाग १५ दिया हुआ है, और यह पाठकोंको शायद एक नई खो दिया है। जो लोग शासन देवताओंकी पूजाबात मालुम होगी कि भगवत्कुंदकुंदके अब तक का निषेध करते हैं और ऐसे कितने ही आचार्य जितने ग्रंथ (दस ये और चार दूसरे) उपलब्ध तथा विद्वान हो गये हैं-उन्हें भी मिथ्यादृष्टि, नास्तिक हुए हैं उनमें यही पहला ग्रंथ है जिसमें उनका और उत्सूत्री ठहराया है ! और वे यदि युक्ति-वचनों नाम एक पद्य में पाया जाता है। यह ग्रंथ पहले से अपने प्राग्रहको न छोड़ें तो उनके मुंह पर छप चुका है। रयणसार और षट्पाहुड (भाषा विष्ठामें लपेटकर जते मारने चाहिएँ, उसमें कोई टीका सहित) भी छप चुके हैं। इसलिये षट् पाप नहीं है, ऐसा विधान किया है !! इस घृणित पाहुड (प्राभृत) की यह टीका, लिंग पाहुड और लेखनी और द्वेषभावका भी कहीं कुछ सील पाहुड ये तीन ग्रंथ ही इस संग्रह में नये ठिकाना है !!! पाठक नीचे टीकाकारके उन खास छपे हैं। छपे हुए रयणसार ग्रंथ में १५५ शब्दों को देखेंगाथाएँ थी और अब एक दूसरी प्रतिके आधार "शासन देवता न पूजनीयाः, प्रात्मैव पर १६७ गाथाएँ छापी गई हैं। साथ ही कुछ क्रम- देवोवर्तते अपरः कोपि देवोनास्ति, वीराभेद भी किया गया है। परंतु यह नहीं बतलाया दनन्तर किल केवलिनोऽष्टजाता न तु त्रयः गया कि ये बढ़ी हुई गाथाएँ मूल ग्रंथकी हैं अथवा महापुराणादिकं किलविक्रथा इत्यादि क्षेपक । इस रयणसार ग्रंथ और द्वादशानुप्रेक्षामें ये उत्सूत्रं मन्वते ते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका कितनी ही गाथाएँ साफ तौरसे क्षेपक मालूम नास्तिका स्ते यदि जिनसूत्रमुल्लघते तदा होती हैं। अच्छा होता यदि इस विषयके निर्णयका आस्तिकैर्युक्तिवचनेन निषेधनीयाः। तथा. ग्रंथमें कोई खास प्रयल किया जाता, जिससे मूल पि यदि कदाग्रहनमुंचंति तदा *समस्तैग्रंथ अपने असली रूपमें पाठकोंको देखनेको रास्तिकैरूपानद्भिः गूथलिप्ताभिर्मुखे ताड. मिलते और किसीको किसी वाक्यके समझने या नीयाः; तत्र पापं नास्ति" उल्लेख करनेमें भ्रम न होता।
हमें यह देखकर अफसोस होता है कि ग्रंथके ___ भगवत्कुंदकुदके मूल ग्रंथोंके सम्बन्धमें हमें यहाँ संपादक और संशोधक पं० पन्नालालजी सोनीने कुछ बतलानेकी ज़रूरत नहीं है। वे कैसे अच्छे होते एक फुटनोटके द्वारा टीकाकारके इस भावको हैं इससे प्रायः सभी पाठक परिचित है। हाँ, षट्- पुष्ट करनेकी कुछ चेष्टा की है ! अस्तु; अब हम प्राभृतकी इस टीकाके सम्बन्धमें हमें इतना जरूर पाठकोंके सामने वह मूल गाथा रखते हैं जिसकी कहना होगा कि, यह टीका एक बहुत ही आपत्ति- टीकामें यह अंश दिया हश्रा जनक टीका है, जिसपर एक जुदा विस्तृत लेख लिखे दसणमूलो घम्मो उवइट्रो जिणवरेहिं सिस्साणं जानेकी ज़रूरत है। इसमें टीकाकार, कितनी ही तं सोऊण सकरणे दसण हीणोण वंदिव्वो २ जगह, मलके भावोंसे बहुत ही इधर उधर निकल इस गाथामें दर्शनहीन ( सम्यक्त्व रहित ) गया है। उसने अपनी कषाय-परिणति, द्वेष भरी वंदना किये जानेके योग्य नहीं है, ऐसा जो कहा दृष्टि और असंयत भाषाके द्वारा मूल ग्रंथकी गया है उसीकी व्याख्यामें टीकाकारने उपर्युक्त शांति और उसके माध्यस्थ भावको बहुत कुछ उदार निकाले हैं और इस बातकी जरा कोशिश भंग कर दिया है। वह श्वेताम्बरों, स्थानकवासियों (लौकागच्छानुयायियों) तथा अपनेसे विभिन्न . * पिटसन साहबकी रिपाट वाली हरतलिखित प्र
ऐसा ही पाठ है। छपी हुई प्रतिमें इसकी जगह समर्थैः। विचार रखनेवाले दूसरे दिगम्बर सम्प्रदायों और
___ पद दिया है जो संभवतः टिप्पणी में पाए हुए 'शक्त' शब्द इतर व्यक्तियों पर बुरी तरहसे टूटा है और उसमें का सादृश्य स्थापित करनेके लिये संशोधित मालूम उसने सभ्यता तथा शिष्टताको बिलकुल ही हाथसे होता है।
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