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पुस्तक- परिचय |
१ युक्त्यनुशासन सटीक - माणिक चंद्र दि० जैनग्रंथमालाका १५. वाँ 'पुष्प। पृष्ठ संख्या, २०० के करीब । मूल्य, लिखा नहीं, पर है तेरह धाने । मिलनेका पता, जैन ग्रन्थरस्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई ।
जैनहितैषी ।
यह मूल ग्रंथ 'स्वामिसमन्तभद्राचार्यका बनाया हुआ एक बड़ा ही महत्वपूर्ण और अपूर्व ग्रंथ है और इसका प्रत्येक पद बहुत ही अर्थ गौरवको लिये हुए है। इसमें, स्तोत्रप्रणालीसे, कुल ६४* पयों द्वारा, स्वमत और परमतोंके गुण-दोषोंका, सूत्र रूपसे, बड़ा ही मार्मिक वर्णन दिया है और प्रत्येक विषयका निरूपण बड़ी ही खूबीके साथ प्रबल युक्तियों द्वारा किया गया । यह ग्रंथ जिज्ञासुओंके लिये हितान्वेषणके उपायस्वरूप है और इसी मुख्य उद्देश्यको लेकर लिखा गया है; जैसा कि इसके निम्न पद्यसे प्रकट हैन रागान्नः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदि मुनौ न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता । किमु न्यायान्यायप्रकृतगुणदोषशमनसां, हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः ॥ ६३
ग्रंथके साथ में विद्यानंदस्वामी जैसे प्रखर तार्किक विद्वानकी बनाई हुई एक मनोहर संस्कृत टीका लगी हुई है और इससे ग्रंथकी उपयोगिता और भी ज्यादा बढ़ गई है। मूल ग्रंथ पहले एक बार 'सनातन जैनग्रंथमाला' के प्रथम गुच्छुक में भी प्रकाशित हो चुका है; परंतु यह टीका अभी तक प्रकाशित नहीं हुई थी । कितने ही प्रयत्नोंके बाद अब यह प्रकाशित हुई है और इससे विद्यानंद स्वामीकी एक ऐसी नई कृतिका उद्धार हुआ है जो प्रायः अनुपलब्ध थी । यह कृति उनके श्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और तत्वार्था
• इस ग्रंथ में ४२ वें पद्यके बाद ४३वें पद्य पर ४४ नंबर डाला गया है और इस तरह पर आगे आगे के पद्यों पर बराबर एक एक नम्बरकी वृद्धि होकर अन्तिम पद्यसे ग्रंथसंख्या ६५ मालूम होती है, जो गलत है।
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[ भाग -१५
लंकार ( श्लोकवार्तिक ) नामक ग्रंथोंके बादकी बनी हुई है, ऐसा इसके भीतरके उल्लेखवाक्योंसे पाया जाता है। इसके उद्धार कार्यमें नजीबाबाद के साहु गणेशीलालजीकी धर्मपत्नीने सौ रुपयेकी सहायता प्रदान की है और उनकी इस सहायतासे यह ग्रंथ ख़ास ख़ास विद्वानों तथा संस्थाओंको बिना मूल्य भेट भी किया जाता है 1
हमें इस ग्रंथके प्रकाशित होने पर जितनी खुशी हुई उतना ही यह देखकर दुःख भी हुआ
ग्रंथ में कागज बहुत घटिया तथा कमजोर लगाया गया है और छपाई भी कुछ अच्छी नहीं हुई । ऐसे महान ग्रंथको, जिसे जैन शासनकी एक प्रकार से जान कहना चाहिए और जिसे श्रीजिनसेनाचार्यने, हरिवंश पुराणमें, महावीर भगवानके वचनोंके तुल्य उनकी जोड़का- बतलाया है, ऐसे घटिया तथा रद्दी कागजपर छापना निःसन्देह बड़ा ही खेदजनक है, और इससे यह मालूम होता है कि ग्रन्थका उचित श्रादर नहीं किया गया । ऐसे महान् ग्रंथ, श्वेताम्बरोंकी आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित होनेवाले उनके श्रागम ग्रंथोंकी तरह, उत्तम और अच्छे पुष्ट काग़ज़ पर छपने चाहिएँ । यदि ऐसे कागज पर छापनेकी श्रद्धा श्रथवा सामर्थ्य न हो तो कमसे कम ऐसे पतले, रद्दी और कमज़ोर काग़ज़ पर तो वे नहीं छपने चाहिएँ । माणिकचंद ग्रंथमालाका कार्यं किसी व्यापारिक दृष्टि से नहीं होता है और इसलिये हमारी रायमें उसका कोई भी ग्रंथ ऐसे घटिया काग़ज़ पर प्रकाशित न होना चाहिएँ । आशा है, ग्रंथमालाके प्रबंधक महाशय श्रागेको इस पर ज़रूर ध्यान रक्खेंगे ।
ग्रंथके टाइटिल पेजसे ऐसा मालूम होता है। कि ग्रंथका संपादन और संशोधन दो विद्वानों के द्वारा हुआ है। परंतु फिर भी इसमें कितनी ही
ग्रंथमालाका यह ग्रंथ बम्बई में न छपकर कलकत्तेके जैन सिद्धान्त प्रकाशक प्रेसमें पं० श्रीलालजी काव्यतीर्थ के प्रबंधसे, जो कि इस ग्रंथके संपादक तथा संशोधनकर्ता भी हैं, मुद्रित हुआ है ।
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