Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 42
________________ 40. जैनहितैषी। [भाग 15 दो वर्ष हो चुके हैं। इस अर्से में हम हमारी इच्छा है। ये सब काम करते हुए समाजको और विशेषकर अपने पाठको- हम जैनहितैषीका संपादन यथेष्ट रीतिसे की सेवा करने में कहाँ तक समर्थ हो सके नहीं कर सकते हैं। इसलिये अब हम हैं और कहाँतक हमने इस पत्रको रीति- प्रागेसे जैनहितैषीका संपादन छोड़ते हैं नीति तथा कीर्ति को सुरक्षित रक्खा है, . और इसका भार उन्हीं अपने मित्रवर इस विषयमें एक शब्द भी कहने की ज़रू. पंडित नाथूरामजी प्रेमीको सौंपते हैं रत नहीं है। सहृदय पाठक उससे स्वयं जिनके पाग्रहसे हमने इस भारको उस परिचित हैं और साधारण जनता जैन- वक्त अपने ऊपर लिया था जब कि प्रेमी हितैषी पर लिखे हुए विद्वानोंके उन जीकी अस्वस्थताके कारण यह पत्र प्रायः विचारों परसे मालम कर सकती है जो दो साल तक बंद रहा था और लोगों कई अंकोंसे हितैषीमें प्रकाशित हो रहे इसका और अधिक बंद रहना असह्य हैं। हाँ, इतना ज़रूर कहना होगा कि हो उठा था। अस्तु; अब जनवरीसे यह शारीरिक अस्वस्थता तथा प्रेसकी गड़बड़ी पत्र अपने पुराने लब्धप्रतिष्ठ संपादक आदि कई कारणों से हम पत्रको प्रायः प्रेमीजीके संपादकत्वमें ही प्रकाशित समय पर नहीं निकाल सके हैं। यद्यपि होगा / और हम, यथावकाश, लेखों द्वारा जैन-हितैषी समाचारोंका कोई पत्र नहीं पाठकोंकी सेवा उसी तरहसे करते रहेंगे है, जिसके देरसे निकलने पर उसकी जैसे कि पहले किया करते थे। उपयोगिता नष्ट हो जाय, बल्कि एक हमारे इस संपादन कालमें जिन इतिहास प्रधान पत्र है जिसके अधिकांश विद्वानों तथा महानुभावोंने लेखों द्वारा * लेखोंके बारबार पढ़ने, मनन करने तथा इस पत्रको सहायता प्रदान की है, उनका पास रखने की ज़रूरत होती है। और हृदयसे आभार मानते हैं। साथ ही, उन इतिहासका कोई भी ऐसा पत्र नज़र लोगोंके भी आभारी हैं जिन्होंने इस नहीं माता जो ठीक समय पर निकलता पत्र पर क्रूर दृष्टि रक्खो, जिनकी दृष्टिमें हो-जैनहितैषी पहले भी इसी चालसे इसका सुमधुर और हितकर तेज भी नहीं चला पाता था-फिर भी हम अपनी समाया और इसलिये जिन्होंने इसके बंद इस त्रुटिको स्वीकार करते हैं और उसके करनेकी कोशिश की अथवा इसका शाकारण पाठकोंको जो अक्सर प्रतीक्षा- ब्दिक बहिष्कार किया; क्योंकिऐसे लोगों के जन्य कष्ट उठाना पड़ा है उसके लिये क्षमा इस व्यवहारसे हमारे सामाजिक मनुचाहते हैं। साथ ही, पाठकोसे यह भी भवमें बहुत कुछ वृद्धि हुई है, हमने कितने 'निवेदन कर देना उचित समझते हैं कि ही खास खास व्यक्तियों को पहचाना है जैनहितैषीका संपादन करते हुए हमारा और हमें यह अच्छी तरहसे मालूम हो बहुतला इतिहासका काम बकायामें पड़ गया है कि जैनसमाज कितना गुणगया है-हम एक प्रामाणिक और क्रम- ग्राहक है, ऊंचे साहित्य और ऊंचे विचाबर जैन इतिहास तय्यार करना चाहते रोको पढ़ने सुननेकी उसमें कितनी क्षमता हैं जिसके लिये हमें अभी बहुत कुछ काम तथा योग्यता है, जैन धर्मके मर्म रहस्य करना बाकी है। इधर देशसेवाके दूसरे और उसकी उदार नीतिसे वह कहाँ तक कामोंमें भी कुछ विशेष हिस्सा लेनेको परिचित है, इतिहाससे उसका कितना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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