Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 37
________________ पस्तक-परिचय। अंक १२ ] . श्चित्तका-शुद्धिका-विधान किया गया है। इनमें है। कई वर्ष हुए जब हमने इस ग्रन्थको पूरा पढ़ा भी 'प्रायश्चित्त-समुच्चय' नामका ग्रन्थ एक था और उस वक्त इस समचे ग्रन्थपर जो विचार बड़ा ही महत्वपूर्ण और प्रौढ़ साहित्यको लिये उत्पन्न हुआ था उसे एक कागजके टुकड़े पर लिख हुए उच्च कोटिका ग्रन्थ है, जिसमें सूत्ररूपसे थोड़े छोड़ा था। उचित मालूम होता है कि इस समाशब्दोंमें प्रायश्चित्त विषयका बहुत कुछ कथन लोचनाके साथ उसे भी प्रकाशित कर दिया जाय। किया गया है । 'प्रतिसेवा' आदि कितने ही खास वह निन्न प्रकार हैअधिकार ऐसे दिये हैं जो छेदपिंडादिक दूसरे 'यह रहस्य ग्रंथ (प्रायश्चित्त समुशय) ग्रन्थों में नहीं पाये जाते। परंतु हमें यह देखकर जैन धर्मपर और खासकर उसके चरणाखेद होता है कि यह पूरा ग्रन्थ इस संग्रहमें नहीं नुयोग पर एक बड़ा भारी प्रकाश डालने छापा गया। उसका केवल उत्तर भाग ही छापा वाला है। इस ग्रंथके पढ़नेसे बहुतसी गया है जो कि उसकी चूलिका कहलाता है। इस ऐसी बातोका अनुभव होता है, जो वर्त. भागके अन्तमें एक पद्य इस प्रकारसे दिया हुआ है मान आचार-विचारकी दृष्टिले, बद्यपि, चूलिकासहितो लेशात् प्रायश्चित्तसमुच्चयः कुछ नई सी मालूम होती हैं परन्तु वास्तव. नानाचार्यमतान्यैक्याद् बोद्धुकामेनवर्णितः में वे सब सत्य, स्वाभाविक और मार्मिक इसमें साफ तौरसे चूलिका सहित प्रायश्चित्त हैं और उनसे जैनियोंके धर्माचरणका ढाँचा अच्छी तरहसे समझमें आ जाता समुच्चय ग्रन्धकी समाप्तिको सूचित किया है और ग्रन्थके निर्माणका यह हेतु बतलाया है कि वह ह है। यह पूरा ग्रंथ भात्महितैषी विद्वान् नाना पाचायोंके मतोंका एकत्र अथवा एक मखसे सुधारकांक मनन करने योग्य है. साधाबोध करानेके लिये लिखा गया है। इस पद्यके रण गृहस्थोके पढ़ने योग्य नहीं है। मौजूद होते हुए, ग्रन्थका प्रधान भाग ( पूर्व खंड) इस संग्रहके ग्रन्थ-सम्बंधमें एक बात और साथमें न होनेसे ग्रन्थका अधूरा और लंडुरापन भी प्रकट कर देनेके योग्य है और वह यह है कि बहुत ही खटकता है । जान पड़ता है, ग्रन्थमालाके छेदपिण्डके अन्तमें उसके कर्ताने ग्रन्धकी गाथाकाम करनेवालोंको इस परसे यह मालूम ही नहीं संख्या ३३३ बतलाई है और लोक दृष्टिसे ग्रन्धका हो सका कि यह ग्रन्थ अधूरा है और इसी लिये परिमाण ४२० श्लोक परिमाण दिया है। परंतु उन्होंने कहींसे उसकी प्राप्तिकी कोशिश नहीं की। इस मुद्रित ग्रन्थमें गाथाओंकी संख्या ३६२ पाई की होती तो वे कमसे कम उसकी और ग्रन्थके जाती है और जिस गाथामें उक्त परिमाण अधूरेपनकी कोई सूचना साथमें ज़रूर देते, जो दिया हुआ है उसका नम्बर ३६० है अर्थात नहीं दी गई। अस्तु, इस चूलिकासे पहले मल इस गाथा तक उक्त परिमाणसे २७ गाथाएँ ग्रन्थके २५६ पद्य और हैं और उनके साथमें भी श्री बढ़ी हुई हैं। इसपर ग्रन्थमालाके मंत्री श्रीयुत पं० नन्दिगुरुकी 'प्रायश्चित्त विनिश्चयत्ति' नामकी नाथूरामजी प्रेमीने, अपनी 'ग्रन्थ-परिचय' नामकी टीका लगी हुई है। यह पूरा सटीक ग्रन्थ महा- भूमिकामें, ऐसा अनुमान प्रकट किया है कि, ३६० सभाके सरस्वती भंडारमें मौजूद है, जहाँसे सहज नम्बरकी गाथाका पाठ लेखकोंकी कृपासे कुछ हीमें प्राप्त हो सकता है। इस ग्रन्थका गहरा __ अशुद्ध हो गया जान पड़ता है और वह 'वासद्वित्तर। अध्ययन और मनन करनेसे बहुत कुछ अनुभवकी या उससे मिलता जुलता कोई और पाठ होना प्राप्ति होती है और यह मालूम होने लगता है कि चाहिए। साथ ही आपने इस अनुमानका यह कारण किस प्रकारकी परिणति द्वारा आत्मासे कर्म मल बतलाया है कि ३२ अक्षरोंके श्लोकके हिसाबसे दूर करके उसे शुद्ध और साफ बनाया जा सकता इस ग्रन्थ की श्लोक संख्या तो अब भी ४२० केही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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