Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 9
________________ अंक १२] पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच । ३६७ और जुड़ा हुआहै और उससे दो विकल्प सिद्धि, समाधितन्त्र और इष्टोपदेश उत्पन्न हो सकते हैं । एक तो यह कि वह नामक ग्रन्थोंके साहित्यके साथ मिलान प्रन्थ 'वासुपूज्य' नामके भाचार्यका करने पर इतना ज़रूर कह सकते हैं कि बनाया हुमा है और लेखकके किसी यह ग्रन्थ उक्त अन्धोके कर्ता श्रीपूज्यपादाअभ्यासकी वजहसे पूज्यपादका नाम चार्यका बनाया हुमा नहीं है। इन ग्रंथोंकी चित्त पर ज्यादा चढ़ा हुआतथा अभ्यास- लेखनी जिस प्रौढ़ताका लिये हुए है, में अधिक आया हुमा होने के कारण- विषय प्रतिपादनका इनमें जैसा कुछ ढंग 'पाद' शब्द उसके साथमें गलतीसे और है और जैसा कुछ इनका शब्दविन्यास पाया अधिक लिखा गया है। क्योंकि 'वासुपूज्य: जाता है, उसका इस ग्रन्थके साथ कोई नामके भी प्राचार्य हुए हैं-एक 'वासु. मेल नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में श्रावकधर्म पूज्य' श्रीधर प्राचार्य के शिष्य थे, जिनका काभी वर्णन है, परंतु वहाँ लक्षणादि रूपसे उल्लेख माघनन्दिश्रावकाचारकी प्रशस्ति. विषयके प्रतिपादनमें जैसी कुछ विशेषता में पाया जाता है। दूसरा विकल्प यह पाई जाती है, वह यहाँ दृष्टिगोचर नहीं हो सकता है कि यह प्रन्थ 'पूज्यपाद' होती। यदि यह ग्रन्थ सर्वार्थसिद्धिके प्राचार्यका ही बनाया इभा है और कर्ताका ही बनाया हमा होता तो. कि उसके साथ में 'वास' शब्द. लेखकके वैसे यह श्रावक धर्मका एक स्वतंत्र ग्रन्थ था ही किसी अभ्यास के कारण, गलतीसे इसलिये, इसमें श्रावक धर्म सम्बन्धी जुड़ गया है। ज्यादातर ख़याल यही अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त उन सब वि. होता है कि यह पिछला विकल्प ही ठीक शेषताओका भी उल्लेख ज़रूर होना चाहिए है, क्योंकि पाराकी दूसरी प्रतिके अन्तमें था जो सर्वार्थसिद्धि में पाई जाती हैं। भी यही वाक्य दिया हुआ है और उसमें परंतु ऐसा नहीं है, बल्कि कितनी ही 'वासु' शब्द नहीं है। इसके सिवाय जगह कुछ कथन परस्पर विभिन्न भी छपी हुई प्रति और देहलीकी प्रतिमें भी पाया जाता है, जिसका एक नमूना नीचे बह ग्रंथ पूज्यपाद का ही बनाया हुआ दिया जाता हैलिखा है। साथ ही, 'दिगम्बर जैन ग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ' नामकी सूची में भी सर्वार्थसिद्धि में 'अनर्थ. दंडविरतिः पूज्यपादके नामके साथ एक श्रावकाचार नामके तीसरे गुणवतका स्वरूप इस ग्रंथका उल्लेख मिलता है। इन सब प्रकार दिया हैबातोसे यह तो पाया जाता है कि यह पूज्यपादाचार्यका बनाया हुआ है; परन्तु "असत्युपकारे पापादान हेतुरनर्थ दण्डः । . कौनसे 'पूज्यपाद' प्राचार्य का बनाया ततो विरतिरनर्थ दण्डविरतिः ॥ अनर्थ हुआ है, यह कुछ मालूम नहीं होता। दण्डः पंचविधः। अपध्यानं पापोपदेशः, प्रमा__ ऊपर जिस परिस्थितिका उल्लेख दचरितम् , हिंसाप्रदानम् , अशुभश्रुतिरिति । किया गया है, उसपरसे यद्यपि यह तत्र परेषां जयपराजयवध बन्धनाङ्गच्छेदकहना आसान नहीं है कि यह ग्रंथ अमुक परस्वहरणादिकथं स्यादिति मनसा चिन्तनपूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है, मपध्यानम् । तिर्यकक्लेशवाणिज्य प्राणिवधपरन्तु इस ग्रंथके साहित्यको सर्वार्थ- कारंभादिषु पापसंयुक्तं वचनं पापोपदेशः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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