Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 05 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 5
________________ अङ्क ५-६] सुधारका मूलमंत्र। १९७ प्राप्त करना हो उन्हें भूमंडलके इतिहासोंका अध्ययन समाजोंके उत्थान और पतनका भी प्रायः ऐसा करना चाहिए । इतिहासोंका अध्ययन उन्हें बत- हा रहस्य है। उनका उत्यान और पतन भी लायगा कि साहित्यप्रचारमें कितनी बड़ी शक्ति है उनके साहित्यप्रचारकी हालत पर अवलम्बित और उसके द्वारा समय समयपर कैसे कैसे महान् है । आप किसी देश या समाजको जैसा बनाना उलट फेर हो गये हैं। सिक्ख समाज तथा चाहें उसमें वैसे ही साहित्यका पूर्ण रीतिसे प्रचार उसके धर्मकी आरंभमें क्या दशा थी और कर दीजिए, वह उसी प्रकारका हो जायगा । फर कैसे कैसे साहित्यके प्रभावसे उसकी उदाहरणके लिए, यदि आप यह चाहते हैं कि काया पलट होकर वह क्षत्रियत्वमें ढल गया, हिन्दी भाषाका भारतवर्षमें सर्वत्र प्रचार हो ये सब बातें भी इतिहासवेत्ताओंसे छिपी जाय और आप उसे राष्ट्रभाषा बनानेकी इच्छा नहीं हैं। वास्तवमें समस्त देशों, धर्मों और रखते हैं तो आप हिन्दी साहित्यका जीजानसे समाजोंका उत्थान और पतन साहित्यप्रचारके प्रचार कीजिए-स्वयं हिन्दी लिखिए, हिन्दी बोलिए, आधार पर ही अवलम्बित है। जिस देश, धर्म या हिन्दीमें पत्रव्यवहार, हिन्दीमें कारोबार और समाजमें जिस समय जिस विषयके साहित्यका हिन्दीमें वार्तालाप कीजिए; हिन्दी पत्रों और अधिक प्रचार होता है उस देश, धर्म या समाजमें पुस्तकोंको पढ़िए, उन्हें दूसरोंको पढ़नेके लिए उस समय उसी विषयकी तूती बोलने लगती है । दीजिए अथदा पढ़ने की प्रेरणा कीजिए । विषयके उत्थानात्मक होनेसे उत्थान और पतना- हिन्दीमें लेख लिखिए, हिन्दीमें पुस्तकें निर्मामक होनेसे पतन हो जाता है । जापान देशकी ण कीजिए, हिन्दीमें भाषण दीजिए और यह आज साठसत्तर वर्ष पहले कैसी जघन्य स्थिति थी सब कुछ दूसरोंसे भी कराइए । ऐसा यत्न की और आज उसका कितना चकित कर देनेवाला जिए कि हिन्दीमें सब विषयों पर उत्तमोत्तम उत्थान हो गया है, यह सब उसके उत्थानात्मक ग्रन्थ लिखे जायँ । हिन्दी लेखकोंका उत्साह बढा-: साहित्यके प्रसारहीका फल है । भारतवर्षका इए, उन्हें लेखों तथा पुस्तकोंके तय्यार करनेके । पतन क्यों हुआ ? और वह क्यों अपनी सारी लिए अनेक प्रकारकी सामग्रीकी सहायता दीगुण-गरिमाको खो बैठा ? इसी लिए कि उसके जिए, और तरह तरहके लेखों, चित्रों, व्या- ' साहित्यकी अवस्था अच्छी नहीं रही। वह अपने ख्यानों, वार्तालापों और व्यवहारोंके द्वारा हिन्दीसाहित्यको स्थिर नहीं रख सका, अथवा समयके का महत्त्व प्रमट करते हुए सर्व साधारणमें हिन्दीअनुकूल नया साहित्य उत्पन्न नहीं कर सका। का प्रेम उत्पन्न कीजिए। साथ ही, हिन्दी ग्रन्थों उसका साहित्य प्रेमशून्य होकर पारस्परिक ईर्षा, तथा हिन्दी पत्रोंकी प्राप्तिका मार्ग इतना सुगम देष, घृणा और निन्दासे तथा निष्फल क्रिया- कर दीजिए कि उनके लिए किसीको भी कांडसे भर गया; उसमें अज्ञानता, अकर्मण्यता, कष्ट न उठाना पड़े-यह सब कुछ हो बाथान्धता, कायरता, अंधश्रद्धा, अनेकता जाने पर आप देखेंगे कि हिन्दी राष्ट्र-भाषा और विलासप्रियता छा गई; और साथ ही, उसने बन गई । इसी तरह पर यदि आप अपने देश लोकोपकार, लोकतंबर. विचार-स्वातंत्र्य और या समाजका उत्थान चाहते हैं और उसके सहोद्योयिता जैसे महाके तत्त्वोंको भुलादिया। सुधारकी इच्छा रखते हैं तो आप उसमें उत्थादशके साहित्यकी ऐसी अवस्था हो जानेसे ही नात्मक और सुधार-विषयक साहित्यको सर्वत्र भारतवर्षका पतन हुआ। भिका भिन्न धमों और फैलाइए । अर्थात अपने देश या समाजके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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