Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 06
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 13
________________ नेमिचरित काव्य । 6 कल्यब्द , ऐसा पाठ भी पाया जाता है । राइस साहबने अपनी उक्त पुस्तककी प्रस्ताव नामें ' कल्यब्द ' का ही उल्लेख किया है । यदि यह पाठ सत्य हो तो यहाँ पर 'कलि ' अभि प्राय ' जैन कलि ' का ही लिया जा सकता है जिसको जैनी लोग ' पंचमकाल ' भी कहते हैं और जिसका प्रारंभ होना वीरनिर्वाणसे लग । काव्यमाला द्वितीय गुच्छकमें यह काव्य नेमिदूतके नामसे प्रकाशित हुआ है । पर वास्तवमें इसका नाम ‘नेमिचरित ' मालूम होता है स्वयं ग्रन्थकर्त्तीने इसके अन्तिम श्लोकमें जो 'नेवारत विशदं' पद दिया है, उससे भी इसका यही नाम प्रतीत होता है । यह 'मेघदूत' के ढँगका काव्य है और मेघदूतके ही चरण लेकर इसकी रचना की गई है। शायद इसीलिए इसे नेमिदूत नाम मिल गया होगा । परन्तु यथार्थ में इसमें दूतपना कुछ भी नहीं है । न इसमें नेमि दूत बनाये गये हैं और न उनके लिए कोई दूसरा दूत बनाया गया है । राजीमतीने नेमि - भगवान्‌को संसारासक्त करनेके लिए जो जो प्रयत्न किये हैं, जो जो अनुनय विनय किये हैं और जो जो विरहव्यथायें सुनाई हैं उन्हींका वर्णन करके यह हृदयद्रावक काव्य बनाया गया है । अन्तमें राजीमत के सारे प्रयत्न निष्फल हुए । नेमिनाथने उसे संसारका स्वरूप समझाया विषयभोगोंका परिणाम दिखलाया, मानवज Jain Education International की सार्थकता बतलाई और इसका फल यह हुआ कि राजीमती स्वयं देहभोगों से उदास नेमिचरित काव्य । भग तीन वर्ष बाद माना जाता है । आशा है कि प्रोफेसर महोदय मेरे इस पुनः कष्ट देने को क्षमा करते हुए यथार्थ वस्तुका निर्णय करने और कराने में दत्तचित्त होंगे | } ता० ३-५-१६ २८५ निवेदक:जुगलकिशोर मुख्तार । होकर साध्वी हो गई ! यदि अन्त के दो श्लोकों में ये पिछली बातें न कही गई होतीं, तो इस काव्यका ' राजीमती - विप्रलम्भ ' या ' राजीम - तीविलाप' अथवा ऐसा ही और कोई नाम अन्वर्थक होता; परन्तु अन्तिम श्लोकोंसे इसमें नेमिनाथको प्रधानता प्राप्त हो गई है - राजीमती के सारे विरहविलाप उनके अटल निश्चय और उच्च चरित्रके पोषक हो गये हैं, इस लिए इसमें सन्देह नहीं कि इसका ' नेमिचरित ' नाम बहुत सोच समझकर रक्खा गया है । For Personal & Private Use Only इस काव्यकी रचना बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है । शब्दसौष्ठव भी अच्छा है । परन्तु जगह जगह क्लिष्टता आ गई है । दूरान्वयता बहुत है, प्रयत्न करनेसे विशेष परिश्रमसे कविका हृगत आशय समझमें आता है । पर इसमें कविका दोष नहीं - उसे लाचार होकर ऐसा करना पड़ा है । कविकुलगुरू कालिदास के सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूतके प्रत्येक श्लोकके चौथे चरण को अपने प्रत्येक श्लोकका चौथा चरण मानकर कविने इस काव्यकी रचना की है। ऐसी दशा में चौथे चरणोंके शब्दों, वाक्यों और उनके आशयोंकी अधीनता में www.jainelibrary.org

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